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अंगपण्णत्ति स्वाधीनत्रिकप्रादक्षिण्यत्रिनतिचतुःशिरोद्वादशावर्ताः। नित्यनैमित्तिकक्रियाविधिं च द्वात्रिंशद्दोषहरं ॥
इदि किदिकम्मं-इति कृतिकर्म। पंच परमेष्ठी ( अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु ) जिनवचन ( शास्त्र) जिनधर्म, जिनालय और जिन प्रतिमा इन नव देवताओं की वन्दना निमित्त, आत्माधीनता, तीन प्रदक्षिणा, तीनवार नति, चार शिरोनति, बारह आवर्तन आदि, नित्य नैमित्तिक क्रियाओं की विधि का बत्तीस दोष टालकर कृतिकर्म ( वन्दना ) करने का प्ररूपण करने वाला कृतिकर्म प्रकीर्णक कहलाता है ॥ २२-२३ ।।
विशेषार्थ चारित्र सम्पन्न मुनि का अपने गुरु, अपने ज्येष्ठ मुनि ( बड़े मुनि ) देव-शास्त्र का विनय करना, उसकी शुश्रुषा करना इसको कृतिकर्म कहते हैं।' ___ जिससे आठ प्रकार के कर्मों का छेदन हो वह कृतिकर्म है। इस कृतिकर्म से पुण्य का संचय होता है अतः इसको "चिति" क्रम भो कहते हैं । इस कृतिकर्म के द्वारा महापुरुषों का विनय किया जाता है अतः इसको विनयकर्म भी कहते हैं। तथा इससे जल, चन्दन आदि से पूजा की जाती है अतः इसको पूजा कर्म भी कहते हैं । ___ इस कृतिकर्म के नौ अधिकार होते हैं-(१) यह क्रिया कर्म कौन करें, (२) किसका करना, (३) किस विधि से करना, (४) कृतिकर्म की विधि किस अवस्था में करना, (५) कितनी बार करना, (६) कितनी अवनतियों से करना, (७) कितनी बार मस्तक में हाथ रखकर करना, (८) कितनी आवर्तन से करना और (९) कितने दोष रहित करना चाहिए । इत्यादिक का कथन है।
(१) कृतिकर्म करने वाले का लक्षण :-जो पंच महाव्रतधारी हैं, धर्म में उत्साह रखने वाले हैं, निर्मानी हैं और संवर निर्जरा के इच्छुक हैं ऐसे मुनिगण, पंचम गुणस्थानवती देशसंयमी और अविरतसम्यग्दृष्टि कृतिकर्म करते हैं अर्थात् वास्तविक में परीषह जयी, शान्त परिणामी, जिनसूत्र विशारद, गुरुजनों का भक्त प्रिय भाषी, संयमी, देशसंयमी और अविरत-सम्यग्दृष्टि हो देव वन्दना ( कृतिकर्म ) करने के अधिकारी हैं।' १. भ० आ० टी०/४२१/६१४ ३. मूला० आ०-४०/५-४-३१/ २. म० आ०/५७५