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अंगपण्णत्ति मन में ही पश्चाताप करते रहना निन्दा है। प्रायश्चित्त आदि के द्वारा आत्म विशुद्धि करना शुद्धि है। ___ इन आठ प्रकार के भावों से निन्दा, गहरे और आलोचना में तत्पर साधु का प्रतिक्रमण कर्मों का घातक भाव प्रतिक्रमण होता है । शेष द्रव्य प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण, प्रतिसरण आदि से युक्त होकर इन प्रतिक्रमण दण्डकों को पढ़ता है, सुनता है उनके महान् कर्मों की निर्जरा होती है । ____ इस प्रकार प्रतिक्रमण करने को विधि, प्रतिक्रमण करने योग्य वस्तु, प्रतिक्रमण करने वाला आदि का विस्तारपूर्वक जिसमें कथन है कि वह प्रतिक्रमण प्रकीर्णक है।
॥ इति प्रतिक्रमण प्रकीर्णक समाप्त ॥
वैनयिक प्रकीर्णक का कथन वेणइयं णादव्वं पंचविहो णाणदंसणाणं च । चारित्ततवुवचारह विणओ जत्थ परुविज्जइ ॥ २०॥
वैनयिकं ज्ञातव्यं पंचविधं ज्ञानदर्शनयोश्च।
चारित्रतपउपचाराणां विनयः यत्र प्ररूप्यते ॥ जिस प्रकीर्णक (शास्त्र ) में ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय के भेद से पाँच प्रकार के विनय का कथन किया जाता है वह वैनयिक प्रकीर्णक है ॥ २० ॥
विशेषार्थ गुणी पुरुषों में आदर करना विनय है अथवा जिससे कर्ममल नष्ट किया जाता है वह विनय है।
लौकिक और अलौकिक के भेद से विनय दो प्रकार का है। लोकानुवृत्ति विनय, अर्थनिमित्तक विनय, कामतंत्र विनय और भय विनय ये चार लौकिक विनय हैं। ___ लौकिक कार्य के लिए लौकिक जनों का विनय करना, उनके अनुकूल आचरण करना लोकानुवृत्ति विनय है अथवा घर पर आये पाहुने का सत्कार करना, उसको आसन देना, भोजन कराना, वचनों से स्तुति करना लौकिक विनय है। __ अर्थ ( धन ) निमित्त राजा, मंत्री आदि को हाथ जोड़ना नमस्कार करना अर्थनिमित्तक विनय है।