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तृतीय अधिकार
१९५ पश्चात्ताप के साथ प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करना वाचनिक प्रतिक्रमण है।
शरीर के द्वारा दुष्कृत्यों का आचरण नहीं करना कायिक प्रतिक्रमण है।
किस क्षेत्र के मनुष्य के, किस काल मनुष्य को, किस संहनन वाले मनुष्य को किस प्रकार का प्रतिक्रमण करना चाहिये । इसका कथन प्रतिक्रमण प्रकीर्ण में किया गया है जैसे विदेह क्षेत्र के मानव दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं परन्तु भरत क्षेत्र के आदिनाथ और महावीर प्रभु के समय के मुनिगणों को दोष लगने या नहीं लगने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिये। ___ अर्थात् ऋषभदेव और महावीर प्रभु के शिष्य इन सब प्रतिक्रमणों को स्वप्नादि दोष से उत्पन्न हुए अपराध को प्राप्त होने पर वा दोषों के नहीं होने पर भी प्रतिक्रमण के सारे दण्डकों का उच्चारण करते हैं क्योंकि आदि और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य चंचल एवं मन्दबुद्धि वाले होते हैं अतः उनकी देवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमणों में सर्व दण्डकों का उच्चारण करने का विधान है क्योंकि किसी दण्डक में मन स्थिर हो जाने से भाव निर्मल हो सकते हैं।
परन्तु शेष बाईस तीर्थंकरों के शिष्य दोष होने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं क्योंकि मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य स्मरण शक्ति वाले, स्थिर चित्तवाले और परोक्षपूर्वक कार्य करने वाले होते हैं, अतः दोष लगने पर प्रतिक्रमण करके दोषों का निराकरण करते हैं । _प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और शुद्धि ये आठ सविकल्प अवस्था में आत्म शुद्धि के कारण हैं, अमृत कुंभ हैं । ___ अपने दोषों का निराकरण करने के लिए दण्डकों का पाठ करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। ___ गुणों में प्रवृत्ति करना प्रतिसरण या सारणा है । दोषों से निवृत्त होने को परिहरण या हारण कहते हैं। चित्त के स्थिर करने को धारण कहते हैं। चित्त के अन्यत्र जाने पर उसे वहाँ से लौटाने को निवृत्ति कहते हैं । गुरु के समक्ष पश्चात्तापपूर्वक दोषों का कथन करना गर्दा है और अपने
१. मूल आराधना, गा० ६१८ । २. मूलाचार, गा० ६२९ ।