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अंगपण्णत्ति
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जिनेन्द्र देव के केवलज्ञानादि गुणों का स्मरण करके स्तुति करते हुए नमस्कार करना भाव वन्दना है।
मन, वचन और काय के भेद से वन्दना तीन प्रकार की है।
वन्दना करने योग्य गुरुजन वा पंच परमेष्ठी आदि के गुणों का स्मरण करना मनो वन्दना है।
वचन के द्वारा उनके गुणों का महत्त्व प्रकट करना वचन वन्दना है।
पंच परमेष्ठी आदि पूज्य पुरुषों की प्रदक्षिणा करना, काय से नमस्कार करना काय वन्दना है।
तीनों संध्या में देव, शास्त्र, गुरु का विनय करना, स्तुति करना, उनको नमस्कार करना, कृतिकर्म के समान तीन आवर्तन आदि करना वन्दना विधि है।
इस प्रकार वन्दना का लक्षण उसके भेदों का कथन करने वाला वन्दना नामक प्रकीर्णक है। ॥ इस प्रकार वन्दना नामक प्रकीर्णक समाप्त हुआ ।
प्रतिक्रमण का कथन पडिकमणं कयदोसणिरायरणं होदि तं च सत्तविहं । देवसियराइक्खियच उमासियमेववच्छरियं ॥१७॥
प्रतिक्रमणं कृतदोषनिराकरणं भवति तच्च सप्तविधं ।
दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकं ॥ इज्जावहियं उत्तमअत्यं इदि भरहखेत्तादि । दुस्समकालं च तहा छहसंहणणऽड्ढपुरिसमासिज्ज ॥१८॥ ईपिथिकं उत्तमार्थमिति भरतक्षेत्रादि ।
दुःषमकालं च तथा षट्संहननाढयपुरुषमाश्रित्य ॥ दव्वादिभेदभिण्णं सत्थं अवि तप्परूवयं तं (तु)। यदिवग्गेहि सदावि य णादव्वं दोसपरिहरणं ॥१९॥
द्रव्यादिभेदभिन्नं शास्त्रमपि तत्प्ररूपकं तत्तु । यतिवर्गः सदापि च ज्ञातव्यं दोषपरिहरणं ॥
इदि पडिक्कमणं-इति प्रतिक्रमणं । किये हुए दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अथवा जिससे