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तृतीय अधिकार
वन्दना स्तवन का कथन सा वंदणा जिणुत्ता वंदिज्जह जिणवराणमिण एक्कं । चेत्तचेत्तालयादिथई च दव्वादिबहुभेया ॥१६॥
सा वन्दना जिनोक्ता वन्द्यते जिनवराणां एकः। चैत्यचैत्यालयादिस्तुतिश्च द्रव्यादिबहुभेदा ॥
एवं वंदणा-एवं वंदना। जिनेन्द्रों में एक जिनेन्द्र सम्बन्धी तथा एक जिनेन्द्र के चैत्य वा चैत्यालय की स्तुति करना, जिनेन्द्र देव कथित वंदना है। द्रव्यादि के भेद से वन्दना बहुत प्रकार की है ।। १६ ।।
विशेषार्थ रत्नत्रय के धारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु के उत्कृष्ट गुणों का श्रद्धा सहित विनय करना वा एक जिनदेव उसके बिम्ब आदि का स्तवन करना वन्दना है अथवा ऋषभादि चतुर्विंशति तीर्थंकर, भरतादि केवलि, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के गुण-गण भेद के आश्रित शब्द कलापों से युक्त गुणों का मनुस्मरण करके नमस्कार करने को वंदना कहते हैं।'
वह वन्दना नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छह प्रकार की है।
चतुर्विंशति तीर्थंकरों में किसी एक तीर्थंकर का वा पंच परमेष्ठी में किसी एक पूज्य परमेष्ठी का नाम उच्चारण करना वा उनके गुणों की प्रशंसा करना नाम वन्दना है। __ कृत्रिम-अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं की स्तुति वा नमस्कार स्थापना वन्दना है।
एक जिनेन्द्र भगवान् या एक परमेष्ठी के शरीर के वर्ण या ऊँचाई का आश्रय लेकर स्तवन वा नमस्कार करना द्रव्य वन्दना है।
जिनेन्द्रदेव के कैलाश, सम्मेदशिखरजी, गिरनार, पावापुर, चम्पापुर आदि सिद्ध क्षेत्रों का स्तवन करके नमस्कार करना क्षेत्र वन्दना है।
जिस काल में वीतराग प्रभु के जन्म आदि कल्याणक हुए हैं उस काल के आश्रय से स्तवन कर नमस्कार करना काल वन्दना है।
१. घ. ८ ( ३.४२)