________________
१९०
अंगपत्त
के समय इन्द्र रचित पालकी, देवों द्वारा पालकी उठाकर भगवान् को ले जाना, केशलोंच करना, रत्न पिटारे में रखकर केशों का क्षीर समुद्र में क्षेपण करना आदि तप कल्याण का वर्णन करके, केवलज्ञान होने पर इन्द्र के द्वारा समवशरण की रचना, प्रभु का परमौदारिक शरीर होना आदि के द्वारा ज्ञान कल्याण का कथन करके प्रभु की स्तुति करना पंच कल्याण के आश्रित द्रव्य स्तवन है ।
जिनेन्द्र दीक्षा वृक्षों के द्वारा भगवान् की स्तुति की जाती है जैसे वृषभादि तीर्थंकरों के क्रमशः दीक्षा वृक्ष हैं-वट, सप्तच्छद, शाल, सरल, प्रियंगु, शिरीष, नागकेशर, साल पाकर, श्री वृक्ष, तेंदुआ, पाटला, जामुन, पीपल, कैथ, नन्दीवृक्ष, नारंग वृक्ष, आम्र, अशोक, चम्पक, वकल, वाशिक, धव, शाल ये चौबीस वृक्ष हैं इनका आश्रय लेकर स्तुति की जाती है वह भी द्रव्य स्तवन है ।
इस प्रकार भगवान् के माता-पिता आदि का कथन करके स्तवन किया जाता है वह भी द्रव्य स्तवन है ।
जिस नगर में भगवान् ने जन्म लिया है अयोध्या आदि नगरी को जिस स्थान पर केवलज्ञान हुआ है, दीक्षा ग्रहण की है तथा मोक्ष प्राप्त उन स्थानों का कथन करके स्तुति करना क्षेत्र स्तवन है । अथवा तीर्थंकरों के गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण कल्याणों से पवित्र अयोध्या आदि नगर, सिद्धार्थ आदि वन, कैलाश, सम्मेदशिखर आदि पर्वत का जो स्तवन है वह क्षेत्र स्तवन है ।
तीर्थंकरों के गर्भावतरण, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओं से पवित्र काल का वर्णन तीर्थंकरों का काल स्तवन है । अर्थात् जिस समय तीर्थङ्करों के गर्भादिक क्रियायें हुई हैं उनका स्तवन काल स्तवन है ।
केवलज्ञानादि असाधारण गुणों के धारी, प्रभु भव्यजीवों को अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा जीवादि पदार्थों के स्वरूप का उपदेश करते समय द्रव्य, गुण, पर्याय का विवेचन करते हैं तथा जीव की शुद्ध दशा और अशुद्ध दशा का विभेद करके शुद्ध जीव के स्वरूप का कथन करते हैं, इत्यादि प्रभु के असाधारण गुणों का स्तवन करना भाव स्तवन है ।
इस प्रकार नाम, स्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा वीतराग 'प्रभु के शरीर आदि के गुणों का कथन जिसमें विस्तारपूर्वक किया जाता है वह स्तवन नामक प्रकीर्णक है ।
|| इस प्रकार स्तवन प्रकीर्णक समाप्त हुआ ||