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तृतीय अधिकार
१९३ अतीत दोषों का निराकरण किया जाता है वह प्रतिक्रमण है। उस प्रतिक्रमण के देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चतुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईर्यापथिक और उत्तमाथं ये सात भेद हैं ।। १७ ॥
इस प्रकार भरतादि क्षेत्र, पंचम काल, छह संहनन आदि से पुरुषों का आश्रय लेकर द्रव्यादि के भेद से प्रतिक्रमण का जो शास्त्र में प्ररूपण है। उन प्रतिक्रमणों का अपने दोषों का परिहार करने के लिए यतिवर्गों को प्रतिदिन करना चाहिये । प्रतिक्रमण प्रतिपादक शास्त्रों को भी द्रव्यादिक भेद से जानना चाहिए ।। १८-१९ ।।
विशेषार्थ संध्याकाल के समय शास्त्रोक्तविधि से, सामायिक दण्डक ( चत्तारि मंगल आदि ) तथा 'त्थोस्सामि' आदि पढ़कर सिद्ध भक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, दण्डक, निष्ठित करण, वीर भक्ति, चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के प्रारम्भ में कायोत्सर्ग करके प्रतिक्रमण किया जाता है, वह देवसिक प्रतिक्रमण है ।
इसी प्रकार प्रातःकाल के समय प्रतिक्रमण करते हैं वह रात्रि प्रतिक्रमण है परन्तु दैवसिक प्रतिक्रमण में संध्याकाल के समय निष्ठित करणवीरभक्ति में १०८ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग किया जाता है और रात्रिक प्रतिक्रमण में चौपन ( ५४ ) श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करते हैं ।
चतर्मासिक प्रतिक्रमण-कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ की शक्ल चतुर्दशी के दिन होता है । सिद्ध भक्ति, आदि भक्ति पाठ होता है। वीरभक्ति के प्रारम्भ में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के चार सौ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग किया जाता है।
पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी के दिन किया जाता है इसमें दण्डक पाठ 'त्थोस्सामि' आदि का कथन पूर्वक सिद्धभक्ति आदि का पाठ चातुर्मासिक के समान ही है वही प्रतिक्रमण है। केवल "चातुर्मासिक" के स्थान पर पाक्षिक का उच्चारण करते हैं और इसके कायोत्सर्ग में तीन सौ श्वासोच्छ्वास होते हैं।
वार्षिक प्रतिक्रमण आषाढ़ के अन्त में होता है, इसमें भी प्रतिक्रमण चातुर्मासिक के समान ही है परन्तु इसमें पांच सौ श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग होता है। — मलमूत्र त्याग करने पर, एक गाँव से दूसरे गाँव में पहुंचने पर,