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तृतीय अधिकार
१८३ ज्ञाता चेतयिता दृष्टाहमेव इत्यात्मगोचरं ध्यानं ।
अथ सं मध्यस्थे गतिरात्मनि आयस्तु स भणितः॥ श्रुत अर्थ के ज्ञाता गणधर देव के शिष्य पर शिष्यों के द्वारा काल दोष से अल्प आय वृद्धि वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंग बाह्य हैं। कालिक और उत्कालिक के भेद से अंग बाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाध्याय काल में पढ़ने योग्य हो उसको कालिक कहते हैं । जिनके पढ़ने का समय निश्चित नहीं है किसी भी समय में पढ़ सकते हैं उसको उत्कालिक कहते हैं। ____सामायिक, चतुर्विंशति स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, निषेधिका (अशीतिक) यह चौदह प्रकीर्णक अंग बाह्य कहलाते हैं। भव्य जीवों को ज्ञान कराने के लिए मैं उन चौदह प्रकीर्णकों का वर्णन करता हूँ ॥१०॥
'सम' उपसर्ग का अर्थ एक रूप है अतः एकत्व रूप से आत्मा में गमन (प्रवृत्ति) करना तथा परद्रव्य से निवृत्ति होना रूप उपयोग को प्रवृत्ति है उसको शास्त्र में समाय-आत्मा कहा गया है। 'सं' अर्थात् एकत्वपने से 'आय' अर्थात् आगमन । परद्रव्यों से निवृत्त होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति होना । वह मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ इस प्रकार का आत्मगोचर ध्यान सामायिक है ॥११॥ ___ अथवा 'सम' का अर्थ है राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा । उस आत्मा में आय अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति सो समाय है। यह समाय ही जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं। अथवा रागद्वेष को निवृत्ति समय है उससे होने वाले परिणामों को विशुद्धि सामायिक है। सामायिक शब्द सम और अय के मेल से निष्पन्न है। सम का अर्थ है रागद्वेष रहित और "अय" का अर्थ है ज्ञान । अतः रागद्वेष रहित ज्ञान का होना सामायिक है ।। १२ ।
सामायिक तथा उनके भेदों का कथन तत्थ भवं सामइयं सत्थं अवि तप्परूवगं छविहं । णाम ट्ठवणा दव्वं खेत्तं काल च भावं तं ॥१३॥
तत्र भवं सामायिक शास्त्रमपि तत्प्ररूपकं षड्विधं । नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालश्च भावस्तत् ॥