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अंगपण्णत्ति
जो मायारूप इन्द्रजाल, विक्रिया कारण मंत्र, तंत्र, तपश्चरणादिक के कौतुहल का कथन करता है, वह मायागतचूलिका है । इस चूलिका के भी दो करोड़, नौ लाख, नवासी हजार, दो सौ पद हैं ।। ४ ॥
सिंह हाथी, घोड़ा, हिरण, मानव, वृक्ष, श्याल, खरगोश, बैल, व्याघ्र आदि रूप परावर्तन के कारणभूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण आदि का वर्णन करता है, तथा मानव भव के सुख के कारण भूतक्रिया तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य, उत्खनन आदि लक्षण धातुवाद, रसवाद आदि का वर्णन करता है, उसे रूपगता चूलिका कहते हैं। इसके भी दो करोड़, नौ लाख, नवासी हजार, दो सौ पद हैं।
आकाश में गमन आदि के कारण भूत मंत्र, तंत्र, तपश्चरण आदि का जो वर्णन करता है वह आकाशगता चूलिका है । इसके भी दो करोड़, नौ लाख, नवासी हजार, दो सौ पद हैं ।। ५-६-७-८-९ ॥ - इन पाँचों चूलिकाओं के पदों का जोड़ दश करोड़, उनचास लाख, छयालीस हजार प्रमाण है।
॥ इस प्रकार पाँच प्रकार की चूलिका का कथन समाप्त हुआ।
इन बारह अंग और चौदह पूर्वो का कथन अंग प्रविष्ट के अन्तर्गत है । अर्थात् ग्यारह अंग और दृष्टिवाद के पांच भेदों-प्रभेदों का कथन अंगप्रविष्ट कहलाता है । और चौदह प्रकीर्णक अंग बाह्य कहलाते हैं।
चौदह प्रकीर्ण वा अंग बाह्य के भेद एवं स्वरूप का कथन चउदस पइण्णया खलु सामइपमुहा हि अंगबाहिरिया । ते वोच्छे अंछरियहेदू'... "हि सुभद्रवजीवस्स ॥१०॥ चतुर्दश प्रकीर्णकाः खलु सामायिकप्रमुखा हि अङ्गबाह्याः। तान वक्ष्ये अक्खरहेतु हि सुभव्यजीवस्य ॥ एयत्तणेण अप्पेगमणं परदव्वदो दु णिवत्ती। उवयोगस्स पइत्ती स समायोऽदो उच्चदे समये ॥११॥
एकत्वेन आत्मनि गमनं परद्रव्यतस्तु निवृत्तिः।
उपयोगस्य प्रवृत्तिः स समाय आत्मोच्यते समये ॥ णादा चेदा दिट्ठाहमेव इदि अप्पगोचरं झाणं । अह सं मज्झत्थे गदि अप्पे आयो दु सो भणिओ ॥१२॥