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अंगण
नित्य निमित्त क्रिया वंदनासाम्यादिका मुनीन्द्राणां । लौकिक लोकोत्तरभवक्रिया ज्ञेयाः स्वभावेन ॥ पयाणि ९००००००० ।
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इदि किरिया विसालं - इति क्रियाविशालं ।
क्रियाविशाल पूर्व में मुनिराजों के वन्दना, सामायिक, नित्य नैमित्तिक क्रियाओं का और लौकिक लोकोत्तर में होने वाली क्रियाओं का स्वभाव से वर्णन जानना चाहिये ।
देवसिक, रात्रिक, प्रतिक्रमण, त्रिकाल देव वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिदिन अट्ठाईस कायोत्सर्ग आदि नित्य क्रिया कहलाती हैं क्योंकि यह क्रियायें नित्य की जाती हैं । यह साधु-साध्वियों की प्रतिदिन की क्रिया है । इनके स्वरूप का विशेष कथन वन्दना, स्तवन, सामायिक, कृति और प्रतिक्रमण नामक प्रकीर्णक में किया जायेगा ।। ११३ ॥
विशेषार्थ
किसी निमित्त को लेकर जो क्रिया की जाती है वह नैमित्तिक क्रिया कहलाती है । जैसे श्रुत पंचमी के दिन श्रुत स्कन्ध प्रतिष्ठापन क्रिया सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, अनन्तर श्रुतावतारोपदेश, तदनन्तर स्वाध्याय प्रतिष्ठापन क्रिया में श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति करके स्वाध्याय करना, तदनन्तर स्वाध्याय निष्ठापन क्रिया में श्रुतभक्ति, शान्तिभक्ति और अन्त में समाधिभक्ति करना चाहिए ।
पाक्षिक क्रिया में सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, आलोचना, प्रतिक्रमण, दण्डक, वीरभक्ति, चतुविशति तीर्थंकर भक्ति, आचार्य भक्ति आदि का पाठ किया जाता है । इस प्रकार मुनिजनों की नित्य नैमित्तिक क्रियाओं का विस्तारपूर्वक कथन किया जाता है ।
वीर निर्वाण क्रिया में - अथ वीर निर्वाण क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण
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श्रीपंच महागुरु भक्ति
विधिवत सामायिक दण्डक आदि बोलकर पञ्च महागुरुभक्ति पढ़नी चाहिए ।
विधिवत सामायिक दण्डक आदि बोलकर बृहद् समाधिभक्ति पढ़नी चाहिए ।
अथ लोच प्रतिष्ठापनक्रियायांपूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं, भावपूजा-वंदना-स्तव समेतं श्री लघु सिद्धभक्ति कायोत्सर्गं कुर्वेऽहम् ।