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अंगपण्णत्ति तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निर्ग्रन्थाचार्य के समीप जाकर दिगंबर मुद्रा धारण करता है, वह पारिवाज्यत्व है ।
पारिव्राज्य के फल स्वरूप जो सुरेन्द्र की प्राप्ति होती है, यह सुरेन्द्रता नामक क्रिया है।
इन्द्र पद के सुखों का अनुभव करके मानव लोक में जन्म लेता है और चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों और चौदह रत्नों से उत्पन्न चक्रवर्ती सम्बन्धी भोगोपभोग सामग्री का अनुभव करता है, यह साम्राज्यत्व है।
चक्रवर्ती के अनुपम सुखों का अनुभव कर कुछ कारण वश चक्ररत्न, नव निधि, चौदह रत्न और षट् खण्ड के वैभव का त्याग कर सिद्धों की साक्षीपूर्वक जिनमुद्रा धारण करता है जिसके गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याण के अवसर पर चार काय के देव महा उत्सव मानते हैं। ऐसा वह महापुरुष चार घातियाँ कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर देव निर्मित समवशरण में बैठकर धर्मोपदेश देते हैं। देवों के द्वारा पूज्यनीय होते हैं। यह तीन लोक को क्षोभ उत्पन्न करने वाली आहत्यत्व क्रिया है।
___ संसार के बन्धन से मुक्त होकर मुक्त अवस्था को प्राप्त होते हैं परम निर्वाण पद को प्राप्त होते हैं, यह परिनिर्वृत्ति क्रिया है।
इस प्रकार परमागम में कथित कन्वय क्रिया हैं। इन क्रियाओं का पालन कर भव्य जीव परम पद को प्राप्त करते हैं।
चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदि रूप सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली सम्यक्त्व क्रिया है। __मिथ्यात्व के उदय से जो अन्य देव के स्तवन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है।
शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदि रूप प्रवृत्ति प्रयोगक्रिया है ।
संयत का अविरति के सन्मुख होना समादान क्रिया है। ईर्यापथ की कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है।
क्रोध के आवेश से प्रदोषिकी क्रिया होती है। दुष्ट भाव युक्त होकर ऊधम करना कायिकी क्रिया है। हिंसा के साधनों को ग्रहण करना अधिकरणि की क्रिया है। जो दुःख की उत्पत्ति का कारण है वह पारितापिकी क्रिया है।
आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास रूप प्राणों का वियोग करने वाली प्राणातिपातिकी क्रिया है।