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द्वितीय अधिकार
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इन आठ क्रियाओं के साथ उपनीति नामक चौदहवीं क्रिया से तिरपनवीं निर्वाण (अग्रनिवृत्ति ) क्रिया तक की चालीस क्रियाओं का नाम ही दीक्षान्वय क्रियाओं के नाम हैं वही उनका स्वरूप है ।
इस प्रकार अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाओं के नाम हैं वही उनका स्वरूप है । इस प्रकार अड़तालीस दीक्षान्वय क्रिया हैं । जो भव्य इन क्रियाओं का यथार्थ स्वरूप जानकर इनका पालन करता है वह निर्विघ्न सांसारिक सुखों का अनुभव कर शीघ्र ही निर्वाण सुख को प्राप्त करता है।
सज्जातित्व, सद्गृहित्व, परिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, परमार्हन्त्य और परनिर्वाण ये सात कर्त्रन्वय नामक क्रिया हैं । ये सात स्थान तीनों लोक में उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अर्हन्त भगवान् के वचनरूपी अमृत के आस्वादन करने वालों को ही प्राप्त होते हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है ।
पिता के वंश को कुल कहते हैं, माता के वंश को जाति कहते हैं । माता-पिता के वंश की शुद्धि सज्जातित्व है । सज्जातित्व के होने पर ही रत्नत्रय की परिपूर्णता होती है । यह सज्जाति जन्म से है । संस्कार रूप सज्जाति होने पर भी होती है । जिस प्रकार विशुद्ध खान से उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्रियाओं और मन्त्रों से सुसंस्कार प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है ।
संस्कार सम्यग्ज्ञान से होते हैं अतः जब भव्यात्मा सर्वज्ञ मुखोत्पन्न सम्यग्ज्ञान को धारण करता है और श्रावक के व्रतों से शोभित होता है तब गुरुदेव उसे आस्तिक्य भाव रत्नत्रय का सूचक तीन लरी का द्रव्य सूत्र ( यज्ञोपवीत) धारण कराते हैं । तथा जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करके उसके शेष अक्षतों को आशीर्वादात्मक मन्त्रों का उच्चारण करते हुए उसके मस्तक पर डालते हैं । यह संस्कारात्मक सज्जातित्व है परन्तु जन्म सज्जातित्व के बिना संस्कार सज्जातित्व नहीं होती है ।
सज्जातित्व धारण करके भव्यात्मा निर्दोष रूप से आर्य पुरुषों के करने योग्य सद्गृहस्थ के छह कर्मों का पालन करता है । व्रत, संयम आदि उत्तम आचरणों से अपने आपको देव ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है । यह सद्गृहित्व क्रिया है ।
गृहस्थ धर्म का पालन करके अन्त में गृहवास से उदासीन होकर शुभ