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अंगपण्णत्ति .. कोई मिथ्यादष्टि भव्य, मिथ्यात्व मार्ग वा मिथ्यात्व धर्म को छोड़कर समीचीन धर्म स्वीकर करना चाहता है, तब गृहस्थाचार्य वा दिगम्बर महामुनि उसको वीतराग प्रभु के द्वारा कथित धर्म का उपदेश देते हैं जिसको सुनकर जिसकी जिनधर्म में प्रीति हुई है, उस समय गुरु, पिता और तत्वज्ञान ही संस्कार किया हुआ गर्भ है। वह भव्य पुरुष धर्म रूप जन्म के द्वारा तत्त्वज्ञान रूपी गर्भ में अवतीर्ण होता है उस समय गर्भाधान क्रिया के समान मंत्रों के द्वारा उसका संस्कार करते हैं, यह अवतार नामक क्रिया है।
२-तदनन्तर वैराग्य भाव से ओत-प्रोत वह भव्य गुरु चरण सान्निध्य में विधिपूर्वक जिनेन्द्र कथित श्रावक व्रतों को ग्रहण करता है यह व्रत लाभ नामक क्रिया है।
३-व्रत धारण करने के लिए जिसने उपवास किया ऐसे नूतन श्रावक को पारणा के दिन जिन मन्दिर में ले जाकर अष्ट दल कमलाकर समवशरण के मण्डल की रचना कर समवशरण की पूजा करे । पश्चात् आचार्य उस भव्य को जिनेन्द्र प्रतिमा के सन्मुख बिठाकर पंचमुष्ठी से उसका मस्तक स्पर्श करके कहता है कि भव्य यह तेरी श्रावक दीक्षा है। "तू इस दीक्षा से पवित्र हुआ है । ऐसा कहकर उसके मस्तक पर पूजा से बचे हुए शेषाक्षत डाले । तत्पश्चात् 'यह मंत्र तुझे सारे पापों से रहित कर पवित्र करेगा।" ऐसा कहकर उसे पंच नमस्कार मंत्र का उपदेश देकर आचार्य, उसे पारणा के लिए भेजता है यह स्थान लाभ क्रिया है।।
४-स्थान लाभ वह भव्य पुरुष पूर्व में स्वगृह में स्थापित मिथ्यादृष्टि देवताओं का विसर्जन करता है, यह गणग्रह क्रिया है।
५-गणग्रह क्रिया के अनन्तर जिनधर्म में कथित उपवास रूपी सम्पत्ति के साथ जिनेन्द्र की पूजा करके द्वादशांग का अर्थ सुनता है यह पूजाराध्य क्रिया कहलाती है। अर्थात् उपवास करना, पूजा करना और शास्त्र का श्रवण करना, यह पूजाराध्य क्रिया है ।
६-तदनन्तर साधर्मी पुरुषों के साथ चौदह पूर्व क्रियाओं का अर्थ सुनना, अर्थ का अवधारण करना, पुण्य को बढ़ाने वाली पुण्ययज्ञा नामकी क्रिया है।
७-जैनधर्म के शास्त्रों का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करके अन्य मतावलम्बियों के ग्रन्थों का अध्ययन करना, दृढ़चर्या नामक क्रिया है ।
८--दृढ़वती मानव अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास करके रात्रि के समय प्रतिमा योग धारण करता है, यह उपयोगिता क्रिया है।