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द्वितीय अधिकार
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सम्बोधन कर पुत्रों को शिक्षा देकर राजाओं की साक्षीपूर्वक बड़े पुत्र को राज्य भार सौंपकर देव निर्मित पालकी में बैठकर वन में जाते हैं और पूर्वाभिमुख से शिलापर बैठकर सर्व परिग्रह का त्याग कर तथा केशलोंच करके सिद्ध साक्षीपूर्वक नग्न मुद्रा धारण करते हैं यह निष्क्रान्ति क्रिया है ।
४९- दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रभु ज्ञान और ध्यान में मग्न रहते हैं, यह योग सम्मह नामक क्रिया है ।
५० - जब प्रभु ज्ञान ध्यान के द्वारा घातियाँ कर्मों का नाश कर केवलज्ञान को प्राप्त कर आठ प्रातिहार्य, बारह दिव्यसभा, स्तूप, मकानों की पंक्तियाँ, कोट का घेरा, पताकाओं की पंक्तियाँ आदि अनेक विभूतियाँ से युक्त समवशरण में स्थित होते हैं और देव परिवार सहित इन्द्र प्रभु की पूजा करता है, वह आर्हन्त्य नामक क्रिया है ।
आगे कर, पुष्पयान पर आरूढ़ (जिनके रचना करता है) होकर महा वैभव के
५१ - जब प्रभु धर्मचक्र को चरणों के नीचे देव कमलों की साथ विहार करते हैं, यह विहार नामक क्रिया है ।
५२ - आयु के कुछ दिन शेष रहने स्थान पर खड़े हो जाते हैं, समवशरण नामक क्रिया है ।
पर प्रभु योग निरोध कर एक विघट जाता है यह योग निरोध
५३- जब प्रभु सर्व शोलों के स्वामी होकर चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त कर सर्व अघातियाँ कर्मों का नाश कर ऊर्ध्वगमन से मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं, यह अग्र निवृत्ति नामक क्रिया है ।
इस प्रकार परमागम में गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त तिरेपन क्रियाओं का वर्णन किया है ।
व्रतों का धारण करना दीक्षा है और एकदेश त्याग और सर्वत्याग के भेद से व्रत दो प्रकार का है अर्थात् अणुव्रत और महाव्रत के भेद से व्रत दो प्रकार के हैं ।
सूक्ष्म और स्थूल सभी प्रकार के हिंसादि पापों का त्याग करना महाव्रत कहलाता है और स्थूल हिंसादि पापों से निवृत्ति को अणुव्रत कहते हैं । इन व्रतों को ग्रहण करने के लिए सन्मुख पुरुषों की जो प्रवृत्ति होती है उसे दीक्षा कहते हैं और दीक्षा से सम्बन्ध रखने वाली जो क्रियाएँ हैं वे दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं ।
१ - वे दीक्षान्वय क्रियायें अड़तालीस हैं जिनका नाम इस प्रकार है ।