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अंगपण्णत्त
कर तीन ज्ञान के धारी भगवान् जन्म लेते हैं वह हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया है ।
४० - जन्म के बाद इन्द्र महान् वैभव के साथ, ऐरावत हाथी पर बिठाकर प्रभु को सुदर्शन मेरु पर ले जाकर १००८ कलशों से अभिषेक करता है, यह मन्दराभिषेक नामक क्रिया है ।
४१ - प्रभु किसी को के स्वामी होते हैं अतः इन्द्र आकर तीन जगत के कहलाती है ।
अपना गुरु नहीं बनाते हैं वे स्वयं सर्व विद्याओं स्वयंभू कहलाते हैं । इसलिए देवों सहित गुरु की पूजा करते हैं वह गुरुपूजन क्रिया
४२ - कुमार काल आने पर महाप्रतापी प्रभु के मस्तक पर अभिषेक करके युवराज्य पद बाँधा जाता है वह यौवराज्य क्रिया है ।
४३ - कुमार काल बीतने पर इन्द्र चार निकाय देवों के साथ प्रभु का अभिषेक राज्यपट्ट बाँधता है और प्रभु सारी पृथ्वी का अनुशासन करते हैं यह स्वराज्य क्रिया है ।
४४- तदनन्तर नव निधि, चौदह रत्न और चक्र रत्न की प्राप्ति होती है तब उन्हें राजाधिराज मानकर उनकी अभिषेक सहित पूजा की जाती है, यह चक्र लाभ क्रिया है ।
४५-चक्र लाभानन्तर चक्र को आगे करके षट् खण्ड पर विजय प्राप्त करते हैं यह दिशा क्रिया है ।
४६ - जब भगवान् दिग्विजय कर अपने नगर में प्रवेश करते हैं तब उत्तम उत्तम राजा लोग उनकी स्तुति करते हैं। नगर निवासी तथा मन्त्री आदि मुख्य-मुख्य लोग उनके चरणों का अभिषेक करके उनके गन्धोदक को मस्तक पर लगाते हैं । श्री, ह्री, गंगा, सिन्धु, विश्वेश्वरा आदि देवियाँ अपने-अपने नियोग के अनुसार उनकी उपासना करती हैं यह चक्राभिषेक क्रिया है ।
४७ - चक्राभिषेक के दूसरे दिन वह चक्रवर्ती राज्यसभा में उन्नत सिंहासन पर बैठकर दान-मान आदि के द्वारा मन्त्री आदि का सत्कार करके शिक्षामय उपदेश देता है, न्यायपूर्वक राज्य करने का आदेश देता है, साम्राज्य किया है ।
४८ - जब प्रभु राज्य भोगों से विरक्त हो जाते हैं तब लौकान्तिक देव आकर उनकी स्तुति करते हैं । तदनन्तर प्रभु अपने कुटुम्बीजनों को