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द्वितीय अधिकार
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२९-संघ पोषण के बाद अन्त में अपने आचार्य पद को योग्य शिष्य को विधिपूर्वक सौंप देता है, यह स्वगुरु-स्थानावाप्ति क्रिया है ।
३०-तत्पश्चात् शिष्य पुस्तक आदि सर्व पदार्थों से राग छोड़कर निर्ममत्व भावना में तत्पर हो चारित्र की शुद्धि करता है यह निसंगत्व भावना क्रिया है।
३१-तदनन्तर सल्लेखना धारण करने का इच्छुक साधु संसार के पदार्थों के चिन्तन का त्याग कर मोक्ष का ही चिन्तन करता है । धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लोन रहता है यह योग निर्वाण संप्राप्ति क्रिया है।
३२-योग का अर्थ समाधि है जो साधु सर्व आहार पानी का त्याग कर समाधि ( सल्लेखना व्रत ) में लीन होता है, यह योग निर्वाण साधन क्रिया है।
३३-समाधिमरण के द्वारा प्राणों का त्याग कर इन्द्र पद को प्राप्त करता है, यह इन्द्रोपपाद नामकी क्रिया है। ___३४-स्वर्ग में इन्द्रपद में जन्म लेने के बाद तत्रस्थ लोग उस देव का अभिषेक करते हैं, यह इन्द्राभिषेक नामक क्रिया है। ___३५-इन्द्राभिषेक के बाद नम्रीभूत हुए उत्तम देवों को अपने-अपने पद पर नियुक्त करता है, यह विधि दान क्रिया है ।
३६-अपने-अपने विमानों की, ऋद्धि से सन्तुष्ट, देवों से घिरा हुआ पुण्यात्मा इन्द्र चिरकाल तक स्वर्गीय सुखों का अनुभव करता है, यह सुखोदय क्रिया है।
३७-चिरकाल तक इन्द्रजन्य सुखों का अनुभव कर देवायु समाप्त होने पर अपना मरण निकट जान सामाजिक आदि अपने सर्व परिवार देवों को सम्बोधित करता है । हे देवगणों ! मेरा मरण निकट है इसलिए आज मैं तुम सबकी साक्षीपूर्वक स्वर्ग का समस्त साम्राज्य छोड़ रहा हूँ और मेरे पीछे मेरे समान जो दूसरा इन्द्र होने वाला है उसके लिए यह सारी सामग्री अर्पित करता है। इस प्रकार कहकर अति आनन्द से इन्द्रपद का त्याग करता है, यह इन्द्रपद त्याग नाम की क्रिया है। ___३८-आयु के अन्त समय में अर्हन्तदेव की पूजा कर, अपने हृदय में सिद्ध भगवान् का ध्यान कर, सोलह स्वप्नों से माहात्म्य को सूचित करता हुआ इन्द्र पर्याय को छोड़ देता है यह इन्द्रावतार किया है।
३९-नव महीना पर्यन्त देवियों के द्वारा सेवित माता के गर्भ में रह