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अंगपण्णत्त
गृहस्थ उसको वर्णोत्तम, महादेव, सुश्रुत, द्विजसतम, निस्तारक, ग्रामपति मनाइ आदि शब्दों से उसका सत्कार करते हैं यह गृहीशिता क्रिया है ।
२१- कुछ दिन बाद गृहस्थाचार्य अपना भार सँभालने योग्य पुत्र को प्राप्त कर अपनी गृहस्थी के भार को पुत्र को सौंपकर विषय-वासनाओं का त्याग कर नित्यस्वाध्याय, नाना प्रकार के उपवास आदि क्रिया करने में तत्पर रहता है, वह प्रशान्त वृत्ति कहलाती है ।
२२ - संसार भोगों से विरक्त अपने धन का तीन भाग कर, एक भाग धार्मिक कार्य में, एक भाग घर खर्च के लिये और एक पुत्र-पुत्रियों को बाँटकर गृहस्थावस्था का त्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण करने के लिये घर छोड़ता है यह गृहत्याग नाम की क्रिया है ।
२३- दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व जो जिन भगवान् की आदि क्रिया की जाती है वह दीक्षाध क्रिया है ।
पूजा, केशलोंच
२४ - सर्व प्रकार आरम्भ परिग्रह का त्याग कर नग्न दिगम्बर मुद्रा धारण करना जिनरूपता नामक क्रिया है ।
२५ - जिन दीक्षा लेकर उपवास किया है जब तक विधिपूर्वक आहार लेने में प्रवृत्त होता है तब तक मौनपूर्वक गुरु के चरण सान्निध्य में शास्त्रों का अध्ययन करता है अर्थात् दीक्षा लेकर गुरु के चरण सान्निध्य में मौनपूर्वक विनय से शास्त्रों का अध्ययन करता है वह मौनाध्ययन वृत्तित्व क्रिया है ।
२६ - सर्व आचारादि शास्त्रों का अध्ययन करने से जिसका आचरण शुद्ध हो गया है ऐसा वह यति तीर्थंकर पद की देने वाली सम्यग्दर्शन विशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का अभ्यास करता है, वह तीर्थकृत भावना नामक क्रिया है ।
२७ - सर्व शास्त्रों के ज्ञान में निपुण मुनिराज जब गुरु के अनुग्रह से गुरु के पद को स्वीकार करता है यह गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया है ।
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२८ - गुरुपद ( आचार्यपद ) को स्वीकार करके मुनि आर्यिका श्रावकश्राविकाओं को समीचीन मार्ग में लगाना है, शास्त्राध्ययन के इच्छुक को अध्ययन कराता है, भव्य जीवों के लिए धर्म का प्रतिपादन करता है, शिष्यों के अपराधों की शुद्धि करता है तथा अपने अपराधों की शोधना कर गुणों की वृद्धि करता है और गण का पोषण करता है । यह गणपोषण नामक क्रिया है ।