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द्वितीय अधिकार
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वक्षःस्थल का चिह्न सात लरका गुंथा हुआ यज्ञोपवीत सात परम स्थान का सूचक है' । मस्तक का मुण्डन मन, वचन, काय का मुण्डन है। इस प्रकार उपनीति क्रिया के बाद गुरु की साक्षीपूर्वक अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत धारण कर गुरु की पूजा करता है और तदनन्तर गुरु उसको उपासकाध्ययन का अध्ययन कराता है। ज्योतिष शास्त्र, छन्द शास्त्र' शकुन शास्त्र, गणित शास्त्र आदि का विशेष रूप से अध्ययन करता है, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है । यह व्रतचर्या नाम की क्रिया है।
१६-विद्याध्ययन की समाप्ति के अनन्तर जब बारह या सोलह वर्ष की अवस्था हो जाती है, तब अध्ययन के लिए ग्रहण किये गये व्रतों का गुरु साक्षीपूर्वक त्याग कर गृहस्थ आश्रम को स्वीकार करता है वह व्रतावतरण क्रिया है।
१७-तदनन्तर विवाह के योग्य कूल में उत्पन्न कन्या के साथ गुरु की आज्ञा से किसी पवित्र स्थान में सिद्ध भगवान् की पूजा करके सामान्य केवली, तीर्थंकर केवली और गणधर केवली रूप तीन अग्नि स्थापित कर उसमें विधिपूर्वक हवन करके बड़ी विभूति के साथ सिद्ध भगवान् की प्रतिमा के सामने वधू-वर का विवाहोत्सव किया जाता है वह वैवाहिक क्रिया है।
विवाह की दीक्षा में नियुक्त वधू-वर की सात दिन तक ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए, तीर्थयात्रा करके फिर सांसारिक कार्य करना चाहिए । इसका विशेष वर्णन महापुराण से जानना चाहिए।
१७-विवाह के बाद जब बालक गार्हस्थ्य धर्म का पालन करता हुआ पिता से पृथक् अर्थ उपार्जन करने का प्रयत्न करता है, यह वर्ण लाभ क्रिया है।
१९-निर्दोष रूप से आजीविका करना, आर्य पुरुषों के योग्य देव पूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप षट् गृहस्थ सम्बन्धी क्रियाओं को करना कुलचर्या है।
२०-कुलचर्या के अनन्तर धर्म में दृढ़ता को धारण करता हुआ अन्य गृहस्थों में नहीं पाये जाने वाले शुभवृत्ति क्रिया मन्त्र विवाह आदि क्रियाशास्त्र, ज्ञान और चारित्र आदि क्रियाओं से अपने आपको उन्नत करता हुआ गृहीश अर्थात् गृहस्थों के स्वामी होने के योग्य होता है उस समय
१. महापुराण पर्व २८ पृ० ३४८ ।