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अंगपण्णत्ति
१८-जन्म दिन से सातवें या आठवें महीने में शुभ दिन मुहूर्त में अर्हन्त भगवान की पूजा करके 'दिव्यामृतभागी भव, विजयामृत०, अक्षीणामृत०, इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए बालक को अन्न खिलाना अन्नप्राशन क्रिया है।
११-एक वर्ष पूर्ण होने पर इष्टजनों को बुलाकर अर्हन्त भगवान् को बढ़े वैभव के साथ पूजन करके सबको भोजन दान सम्मान से संतुष्ट करके 'उपनयन जन्म वर्षवर्धनभागी भव, वैवाह निष्ट वर्ष०, मुनीन्द्र जन्म वर्ष०, सुरेन्द्र जन्म वर्ष०, मन्दराभिषेक वर्ष०, यौवनराज्य वर्ष०, महाराज्य वर्ष०, परमराज्य वर्ष०, आर्हन्त्य राज्य वर्ष०, इन मंत्रों से पुत्र को आशीर्वाद देकर वर्ष दिवस मनाना व्युष्टि क्रिया है।
१२-किसी शुभ दिन में देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करके बालक के मस्तक को गन्धोदक से गीला करके 'उपनयन मुण्डभागी भव, निग्रन्थमुण्ड०, निक्रान्ति मुण्ड०, परम निष्तारक केश०, परमेन्द्र केश०, परम राज्य केश०, आर्हन्त्य राज्य केश०, इन मंत्रों को बोलते हुए बालक के सिर पर अक्षत डालकर मुण्डन कराना और क्षौर कर्म क्रिया है । इस क्रिया में भी पुण्याह (हवन) मंगल किया जाता है। बालक को स्नान करा करके मस्तक पर चन्दन लगाना और वस्त्राभूषण पहनाकर जिन मन्दिर में ले जाकर गुरु को नमस्कार कराना चाहिये।
१३-पांचवें वर्ष में देव पूजा करके बालक को अध्यापक के समीप ले जाकर 'शब्द पारगामी भव, अर्थ पारगामी भव, शब्दार्थ पारगामी भव इन मंत्रों को पढ़ते हुए अक्षर लिखवाना लिपिसंख्यान क्रिया है।
१४-जन्म के आठवें वर्ष में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करके “परम निस्तारक लिंगभागी भव, परमर्षिलिंग०, परमेन्द्र लिंग भागी०, परम राज्य लिंग०, परमार्हत्थ लिंग०, परम निर्वाण लिंग०, इन मंत्रों से बालक का संस्कार करके निर्विकार बालक के कमर में श्वेत वस्त्र पहनाकर तीन लड़ी का मौजी का बंधन और गणधर देव कथित व्रतों को चिह्न स्वरूप और मंत्रों से पवित्र यज्ञोपवीत धारण कराना उपनयन क्रिया है। इस क्रिया में भी पूजा, हवन आदि क्रिया पूर्व के समान है।
तीन लरकी मूज की रस्सी बाँधना कमर का चिह्न है यह मौजी बन्धन रत्नत्रय की विशुद्धि का अंग है और द्विज लोगों का चिह्न है ।
१५-श्वेत धोती उसकी जाँघ के चिह्न हैं, श्वेत धोती यह सूचित करती है कि अरहंत भगवान् का कुल पवित्र और विशाल है।