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द्वितोय अधिकार
१५५ जो लिपि अपने देश में आमतौर से चलती है। लोग अपने अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना करते हैं उसे विकृत कहते हैं।
प्रत्यंग आदि वर्गों में जिसका प्रयोग होता है उसे सामायिक कहते हैं। और वर्गों के बदले पुष्पादि पदार्थ रखकर जो लिपि का ज्ञान किया जाता है उसे नैमित्तिक कहते हैं। इस लिपि के प्राच्य, मध्यम, यौधेय, समाद्र आदि देशों की अपेक्षा अनेक अवान्तर भेद होते हैं।
जिसके स्थान स्वर, विन्यास, काकु समुदाय, विराम, सामान्यामिहित समानर्थत्व और भाषा ये जातियाँ हैं।
उरस्थल, कण्ठ और मूर्छा के भेद से स्थान तीन प्रकार का है। स्वर के षंडज आदि सात भेद हैं।
लक्षण और उद्देश्य अथवा लक्षणा और अभिधा की अपेक्षा संस्कार दो प्रकार के हैं।
पदवाक्य, महावाक्य आदि के विभाग सहित जो कथन है वह विन्यास कहलाता है। ___सापेक्षा, निरपेक्षा की अपेक्षा काकू के दो भेद हैं । गद्य, पद्य और मिश्र अर्थात् चम्पू की अपेक्षा समुदाय तीन प्रकार का है।
किसी विषय का संक्षेप से उल्लेख करना विराम कहलाता है। एकार्थ अर्थात् पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना सामान्यामिहित कहलाता है।
एक शब्द के द्वारा बहुत अर्थ का प्रतिपादन करना समानार्थता है। आर्य, लक्षग और म्लेच्छ के नियम से भाषा तीन प्रकार की है, जिसका पद्य रूप व्यवहार होता है उसे लेख कहते हैं। ये सब जातियाँ कहलाती हैं । व्यक्तवाक, लोकवाक और मार्गव्यवहार ये मातृकाएँ कहलाती हैं। ये सब शास्त्र या उक्ति की कुशलता कहलातो हैं। ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, छन्दशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, पुराणादिशास्त्र कहलाते हैं।
पत्र-छेद के तीन भेद हैं-बुष्किम, छिन्न और अछिन्न । सुई अथवा दन्त आदि से छेद करके जो बनाया जाता है उसे बुष्किम कहते हैं। ___ जो कैंची आदि से काटकर बनाया जाता है उसे छिन्न कहते हैं तथा अन्य अवयवों के सम्बन्ध से रहित होता है उसे अच्छिन्न कहते हैं ।
यह पत्रच्छेद क्रिया वस्त्र तथा सुवर्णादिक के ऊपर की जाती है तथा यह स्थिर और चंचल दोनों प्रकार को है। इस प्रकार छेदक्रिया अनेक प्रकार की है।