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अंगपण्णत्ति के हैं। जो तार से बजते हैं ऐसे-वोणादि तत कहलाते हैं। जो चमड़े से मढ़े जाते हैं ऐसे मृदंग आदि अवनद्ध कहलाते हैं। कांसे के झाँझ, मजीरा आदि घन कहलाते हैं और बाँसुरी आदि को सुषिर कहते हैं।'
संगीत कला में ये चार प्रकार के वादित्र होते हैं उनमें मख्य होते हैं बांसुरी और वीणा । अथवा संगीत की उत्पत्ति में वीणा, वंश और गान ये तीन कारण हैं तथा स्वरगत, तालगत और पदगत के भेद से संगीत तीन प्रकार का माना गया है।
कण्ठ, शिर और उरस्थल तीन स्थलों से स्वर अभिव्यक्त होता है। षडज, ऋषभ, गन्धार-गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात स्वर कहलाते हैं।
द्रुत, मध्य और विलाम्बित ये तीन लय हैं। अस्त्र और चतुरस्त्र ये लय की दो योनियाँ (उत्पत्तिस्थान) हैं। __ स्थायी, संचारी, आरोही, अवरोही इन चार प्रकार के वर्षों से सहित होने के कारण जो चार प्रकार के पदों से स्थित हैं।
प्रतिपदिक, तिडन्त, उपसर्ग और निपातों में संस्कार को प्राप्त संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी ये तीन प्रकार की भाषा जिसमें स्थित है।
धैवती, आर्षभी, प्रडजा, उदीच्या, निषादिनी, गान्धारी, षड्ज केकसी और षड्ज मध्यमा ये आठ जातियाँ हैं अथवा गन्धारी दीच्या, मध्यम पंचमी, गन्धार पंचमी, रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कर्माखी, नन्दिनी और कैशिकी ये दश जातियाँ भी हैं। संगीत इन आठ अथवा दश जातियों से युक्त होता है । तथा प्रसन्नादि तेरह अलंकारों से सहित है।
प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्यप्रसाद और प्रसन्नायवसान ये चार स्थायी पद के अलंकार हैं।
निवृत, प्रस्थित, बिन्दु, प्रेखोलित, तार-मन्द्र और प्रसन्न ये छह संचारी पद के अलंकार हैं। ___ आरोही पद का प्रसन्नादि नामक एक ही अलंकार है और अवरोही पद के प्रसन्नान्त तथा कुहर ये दो अलंकार हैं। इस प्रकार संगीत के तेरह अलंकार हैं और संगीत के अनेक भेद होते हैं। उनको संगीत शास्त्र से जानना चाहिये।
१. हरिवंशपुराण १-२८७