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द्वितीय अधिकार आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि भोजन करते समय किसी प्रकार का अवांछनीय कषायिक आवेग क्रोध आदि नहीं होना चाहिए । क्योंकि मानसिक सन्ताप के होने पर भोजन विष बन जाता है। भोजन के समय मन शान्त एवं प्रशस्त, मध्यस्थ हो तो भोजन अमृत बन जाता है । अन्तःकरण में जैसे-जैसे शुभ या अशुभ, प्रशस्त या अप्रशस्त भाव होते हैं, उसी प्रकार . का कर्म रस बनता है, उसी प्रकार हमारा मनोवेग भोजन के रस को शुभ या अशुभ बना देता है। ___ इस प्रकार सर्व प्रकार के आयुर्वेद का कथन करने वाला प्राणावाय (प्राणावाद) नामक पूर्व कहलाता है।
॥ इति प्राणावाय पूर्व समाप्त ॥
क्रियाविशाल पूर्व का कथन किरियाविसालपुव्वं णवकोडिपयेहिं संजुत्तं ॥११०॥
क्रियाविशालपूर्वं नवकोटिपदैः संयुक्तं ॥ संगीदसत्थछेदालंकारादी कला बहत्तरी य । चउसट्ठी इच्छिगुणा चउसीदी जत्थ सिल्लाणं ॥१११॥
संगीतशास्त्रच्छंदोलडारादि यः कलाः द्वासप्ततिः ।
चतुषष्टिः स्त्रीगुणाः चतुरशीतिः यत्र शिल्पानां ॥ विण्णाणाणि सुगब्भाधाणादी अडसयं च पणवग्गं । सम्मइंसणकिरिया वणिज्जते जिणिदेहिं ॥११२॥
विज्ञानानि सुगर्भाधानादयः अष्टशतं च पंचवर्ग।
सम्यग्दर्शनक्रियाः वयंते जिनेन्द्रः॥ ___ नवकोटी पदों से युक्त क्रियाविशालपूर्व है जिसमें जिनेन्द्र भगवान्, संगीत शास्त्र, छन्द,, अलंकार आदि पुरुषों की बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौसठ गुणों का, चौरासी शिल्पी आदि गुणों का, एक सौ आठ सुगर्भाधानादि क्रियाओं का और सम्यक्त्ववद्धिनी आदि पच्चीस क्रियाओं का कथन किया है ॥ ११०-१११-११२ ।।
... -- विशेषार्थ __ संगीतकला वादित्र, स्वरगीतलय, तालपद, अलंकार आदि से युक्त होता है । तत, अवनद्ध, धन और सुषिर के भेद से वादित्र चार प्रकार