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अंगपण्णत्ति अग्नितत्त्व; छिद्र से तिरछा होकर निकलता हो तो वायु तत्त्व और एक छिद्र से बढ़कर क्रम से दूसरे छिद्र से निकलता हो तो आकाशतत्त्व चलता है ऐसा जानना चाहिए। अथवा ६ अंगुल का एक शंकु बनाकर उस पर ४ अंगुल, ८ अंगुल, १२ अंगुल और १६ अंगुल रुई या अत्यन्त मन्द वायु से हिल सके ऐसा कुछ और पदार्थ लगाके उस शंकु को अपने हाथ में लेकर बालिका के दक्षिण या वाम किसी भी छिद्र से श्वास चल रहा हो उसके समीप लगा करके तत्त्व की परीक्षा करनी चाहिए। यदि आठ अंगुल तक (वायु) (श्वास) बाहर जाता हो तो पृथ्वीतत्त्व, सोलह अंगुल तक बाहर जाता हो तो वायुतत्त्व, चार अंगुल तक बाहर जाता हो तो अग्नितत्त्व और चार अंगुल से कम दूरी तक जाता हो अर्थात् केवल बाहर निर्गमन मात्र हो तो आकाशतत्त्व होता है। इन प्राणायामों का वर्णन प्राणावाय करता है। __पांच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास और आयु ये दश प्राण हैं । इन दश प्राणों के उपकारक और अपकारक द्रव्य कौन से हैं अर्थात् कौन सी वस्तु का भक्षण करने से शरीरस्थ प्राणों को शान्ति मिलती है, कौन-सा द्रव्य प्राणों का उपकारक है तथा कौन-सा द्रव्य प्राणों का अपकारक है, प्राण नाशक है इत्यादि प्रकार से प्राणों के अपकारक एवं उपकारक द्रव्यों का कथन करना प्राणों के अपकारक, उपकारक द्रव्य का कथन है। अर्थात् विष-नशेली भांग, गाँजा, अफीम, शराब आदि वस्तुयें प्राणों के अपकारक द्रव्य हैं और दूध, दही, अन्न, चीनी, घृत आदि उपकारक द्रव्य हैं।
चिकित्सा का प्रयोग किस गति में, किस अवस्था में, किस प्रकार किया जाता है। तिर्यश्च गति के जीवों के रोग दूर करने का प्रयोग अन्य प्रकार का होता है और मनुष्य गति में भिन्न प्रकार का । बाल्यावस्था में उत्पन्न रोग का प्रतिकार किस प्रकार किया जाता है, वृद्धावस्था में किस प्रकार किया जाता है। एक प्रकार का रोग होते हुए भी शारीरिक शक्ति, देश, क्षेत्र काल के अनुसार औषधि का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इस प्रकार प्राणावाय पूर्व दश वस्तुगत, दो सौ प्राभृतों के तेरह करोड़ पदों के द्वारा शरीर चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद भूतिकर्म अर्थात् शरीर की रक्षा के लिये किये गये भस्मलेपन, सूत्र बन्धनादि, कर्म जांगलि प्रक्रम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेद-प्रभेदों का विस्तार. पूर्वक वर्णन करता है।