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द्वितीय अधिकार
१५१ विशेषार्थ प्राणों का आवाद-प्ररूपण जिस पूर्व में है उसको प्राणवाद या प्राणावाय पूर्व कहते हैं। इसमें प्राणों के रक्षा के कारणभूत आठ प्रकार को चिकित्सा का वर्णन है । वह आठ प्रकार की चिकित्सा निम्न प्रकार है
कौमार चिकित्सा-बालकों की चिकित्सा अर्थात् अबोध बालक के रोग को जानकर उसके रोग को दूर करने का प्रयत्न करना। ___ शरीर चिकित्सा-शरीरस्थ ज्वरादिक को दूर करने के उपाय आदि को शरोर चिकित्सा कहते हैं। ___ जिससे उम्र बढ़ती है, शरीर की झरियां आदि दूर होती हैं उसको रसायन चिकित्सा कहते हैं।
जिसके द्वारा सर्प आदि का विष उतारा जाता है उसको विष चिकित्सा कहते हैं इसका दूसरा नाम जांगुली प्रकम भी है जिसमें विषनाशक विद्या का प्रयोग किया जाता है। __भूत उतारने का प्रयोग करना अथवा शरीर रक्षा के लिए किये गए भस्म लेपन, सूत्र बंधन, यंत्र, मंत्र, तंत्र आदि का प्रयोग करना भूत चिकित्सा या भूति कर्म कहलाता है। ___ शरीरस्थ व्रण ( घाव ) आदि को भरने के लिये या उनको स्वच्छ करने के लिए औषधि का प्रयोग किया जाता है, नीम्ब की पत्ती आदि से स्वच्छ किया जाता है वह क्षारतन्त्र चिकित्सा कहलाती है।
सलाई द्वारा आँख खोलना, इन्जेक्शन लगाना, शलाका से मूत्र आदि का करवाना, आप्रेशन करके उदर से पत्थरी आदि निकालना, घाव को चीरना, फाड़ना आदि का प्रयोग करके रोग दूर किया जाता है वह शलाका चिकित्सा है।
शरीर के वाम भाग का स्वर इड़ा ( इंगला), दाहिने भाग का पिंगला, और दोनों एक साथ चलने पर सुषुम्ना स्वर कहलाता है। इसके पाँच तत्त्व हैं—पृथ्वीतत्त्व, जलतत्त्व, अग्नितत्त्व, वायुतत्त्व और आकाशतत्त्व ।
नाक के दक्षिण या वाम किसी भी छिद्र से निकलता हुआ वायु ( श्वास ) यदि छिद्र के बीच से निकलता हो तो पृथ्वीतत्त्व; छिद्र के अधोभाग से अर्थात् ऊपर वाले ओष्ठ को स्पर्श करता हुआ निकलता हो तो जलतत्त्व; छिद्र के ऊर्ध्व भाग को स्पर्श करता हुआ निकलता हो तो
जान