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प्रस्तावना
इस पवित्र भारत वसुन्धरा में दृश्यमान लौकिक इन्द्रिय विषय सुखों से परे अतीन्द्रिय अलौकिक आत्मीय सुख की खोज मानव संस्कृति के इतिहास में हुई जिनका एक ही लक्ष्य रहा आत्मा के उस निरुपाधि, निरालम्ब, निर्विकार, सर्वशुद्ध आनन्दमयस्वरूप की उपलब्धि जिसे पा लेने, जान लेने पर अन्य कुछ भी प्राप्तव्य एवं ज्ञातव्य नहीं रहता। उसको पाना, जानना ही ब्रह्मा को पाना, जानना है । वही मुक्ति अथवा मोक्ष है। ___ इस मुक्ति पथ पर प्रथम आरोहण करने से लेकर मोक्ष के सर्वोच्च शिखर पर सफलतापूर्वक पहुँचने का क्रम है । जैन साहित्य में वर्णित द्वादशाङ्ग जिनागम में जो अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट रूप है । 'अंग पण्णत्ति' आचार्य शुभचन्द्र कृत प्राकृत गाथा निबद्ध ग्यारह अङ्ग, चौदह पूर्व और चौदह प्रकीर्ण की रचना है। अतः इसका अंग पण्णत्ति ये सार्थक नाम है । ग्रन्थ रचना की प्रतिज्ञा करते हुए अन्धकार ने लिखा है
"पुव्वपमाणमेगारहअंगसंजुत्तं" मैं ग्यारह अंग सहित चौदह पूर्व का कथन करूंगा । अन्त में भी कहा है"सिरिवड्ढमाणमहकयविणिग्गय वारहंगसुदणाणं । सिरिगोयमेण रइयं अविरुद्धं सुणह भवियजणा ॥४२॥
श्री वर्धमान स्वामी के मुख से निर्गत, श्री गौतम स्वामी के द्वारा अविरुद्ध रूप से विरचित इस ग्रन्थ को हे भव्यजीव ! एकाग्र होकर के सुनो । अतः इस ग्रन्थ में जीव अजीव रूप आस्रव के कारणों का निरूपण किया गया है।
ग्यारह अङ्ग, चौदह पूर्व और चौदह प्रकीर्ण का कथन है जो चौदह पूर्व प्रकीर्ण, ग्यारह अङ्ग इनकी रचना में सर्व अङ्गों का चौदह पूर्व और चौदह प्रकीर्ण और एक अङ्ग में कथन हो जाता है ।
यद्यपि इसका नाम अंग पण्णत्ति होने से मुख्यतः बारह अङ्ग तथा दृष्टिवाद के पांच भेदों में कथित परिकर्म, चूलिका, सूत्र, प्रथमानुयोग और पूर्व का वर्णन है परन्तु सामान्यतः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान स्वरूप पांचों ज्ञानों का और उनके भेदों का कथन किया गया है तथा इसी