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इसके विषय में सरल तथा आगमानुसार विशद करने के लिए गोमट्टसार, षट्खण्डागम का सहारा लिया है। तथा १०८ क्रियाओं का कथन महापुराण के अनुसार किया है। मुनि चर्याओं का कथन मूलाचार और अनगारधर्मामृत के आधार पर लिखा है। इसमें कोई त्रुटि हुई हो तो मैं उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। विद्वज्जन क्षमा करें । त्रुटियों को सुधार कर पढ़े ।
इस ग्रन्थ के अर्थ करने में डॉ० बालब्रह्मचारिणी प्रमिला जी का जो सहयोग प्राप्त हुआ वह सराहनीय है। उनका हृदय सदा जिनधर्म के प्रद्योतन में लगा रहे, यह कामना करती हूँ।
परमपूज्य आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज के आदेशानुसार इस कार्य को मैंने किया तथा उनके आर्शीवाद से ही यह कार्य पूरा हुआ । अतः यह ग्रन्थ मैं उनके कर कमलों में सादर अर्पित करती हूँ।
दीक्षागुरु १०८ आचार्यवर्य श्री वीरसागर जी, मेरे विद्या गुरु १०८ आचार्यवयं श्रीअजितसागर जी के चरण कमलों में बार-बार नमोस्तु करके भावना करती हूँ कि "गुरु देव निरतिचार व्रतों का पालन करती हुई आपके आशीर्वाद से अन्त में शास्त्रोक्त विधि से समाधिमरण सहित प्राणों का त्याग करूँ ।
माता के समान हृदय देकर विद्या शिक्षा में अग्रेसर कर इस पद पर मुझे आसीन करने वाली १०५ श्री इन्दुमति माता जी के चरणों में वन्दामि करती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि आपके आर्शीवाद से मेरे हृदय में जिन-धर्म का श्रद्धान बना रहे।
"रहे अडोल अकम्प निरंतर, यह मन दृढ़तर बन जावे, पर्वत श्मशान भयानक अटवी से कभी नहीं यह भय खावे । कितना ही कोई भय या लालच देने आवे तो भी, जिनधर्म से कभी मेरा पद डिगने न पावे ॥"
-आ० सुपार्श्वमति