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दो शब्द
अध्यात्म शिक्षा और साधना का जो अमूल्य चिन्तामणि रत्न हमें उत्तराधिकार में मिला है, वह सारी मानव जाति का दायाद है, क्योंकि तीर्थंकरों ने हमें यह धरोहर प्रदान की है । ये अकेले हमारे किसी एक देश, युग और समाज के नहीं अपितु अखिल मानव जाति, समग्र विश्व और शाश्वत युगों के धर्मशास्ता थे। हम उनके दायाद को अपने तक छिपाकर और रहस्य बनाये रखकर नष्ट नहीं होने दे सकते । यह विचार हमारे पूर्वाचार्यों के हृदय में उत्पन्न हुआ होगा ? जिसका प्रतिफल अनेक ग्रन्थों की परम्परा जिसे 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः' के रूप में चारों अनुयोगों में विभाजित की गई जो सर्व संसारी प्राणी समझ सकें और आचरण में उतार सकें। उन्हीं ग्रन्थों की परम्परा में ग्यारह अंक, चवदह पूर्व और चवदह प्रकीर्णक का कथन करने वाला 'अंगपण्णत्ति' नामक ग्रन्थ का उल्लेख भी पाया गया । जो मूल प्राकृत भाषा में मिला । इस ग्रन्थ को संस्कृत टीका हुई या नहीं, हिन्दी अनुवाद हुआ या नहीं यह देखने में नहीं आया। और ना ही मेरे मन में इसके प्रति किसी प्रकार का कोई विचार भी था।
एकाएक डीमापुर चातुर्मास में आर्यिका स्याद्वादमती द्वारा प्रेषित अंगपण्णत्ति नामक पुस्तक मिली जो मूलभूत गाथाओं की थो । एक शब्द भी हिन्दी का नहीं था। कहीं पर संस्कृत में टिप्पणियाँ थीं, इसको देखकर मन विचारों से आप्लावित होने लगा। इसका अनुवाद कैसे किया जायगा ? मैंने पुस्तक रख दी तथा खोलकर भी नहीं देखी। कुछ दिन पश्चात् एक रात्रि में स्वप्न में इष्टगुरु चन्द्रसागर जी महाराज के दर्शन हुए । यद्यपि मैंने सात वर्ष की आयु में एक बार उनके दर्शन किये थे। मेरे दोनों परिवार के लोग महाराजश्री के भक्त थे तथा वे उनके जीवन चरित्र को सुनाते थे। फिर मिल गया पूज्यनीया इन्दुमती माताजी का संयोग । जहाँ देखो-महाराजश्री की ही चर्चा थी। मेरे हृदय में उनके प्रति बड़ी श्रद्धा है-वे निश्छल साधु थे। स्वप्न में उनके दर्शन का प्रतिफल मैंने अपने कार्य की सफलता माना और मुझे निश्चय हो गया कि यह कार्य कठिन नहीं है। दूसरे निमित्तज्ञानी आचार्यवर्य विमलसागरजी महाराज के द्वारा प्रेषित है । "गुरु स्नेहोहि कामसूः" यह वाक्य मन को उत्साहित करता है । यह भी सार्थक हुआ। बहुत अल्प समय ( एक महीने ) में इस कार्य के करने में प्रत्यक्ष परोक्ष रूप में गुरुजनों का आर्शीवाद ही है।