________________
सन्दर्भ में अङ्गबाह्य का कथन भी किया गया है । इस ग्रन्थ में पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोग आदि का वर्णन सुन्दरतम किया है । अङ्ग बाह्य की संख्याओं का कथन भी विशेष रूप से है।
सर्व प्रथम अङ्ग निरूपण नामक प्रथम अधिकार में ७७ गाथाओं में बारह अङ्ग का वर्णन है।
चतुर्दश पूर्वाङ्गप्रज्ञप्ति नामक द्वितीय अधिकार में ११७ गाथाओं में दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और पूर्व का कथन किया है ।
तृतीय अधिकार में चौवन गाथाओं के द्वारा १४ अङ्गबाह्य का विस्तारपूर्वक कथन किया है तथा अन्त में ग्रन्थ कर्ता ने गुरु पट्टावली लिखी है ।
अंगपण्णत्ति के रचयिता आचार्य शुभचन्द्र हैं। शुभचन्द्र नाम के दो तीन आचार्य हुए हैं। ___ सर्व प्रथम ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्र आचार्य हुए हैं जो भतृहरि के भार्ता थे । इनके समय का पूर्णतया निर्णय करना तो बहुत कठिन है तथापि कुछ विद्वानों के अभिमत से वे नवमी शताब्दी में हुए हैं।
शुभचन्द्र नाम के एक दूसरे आचार्य सागवाड़ा के पट्ट पर विक्रम संवत् १६०० ई० सन् १५४४ में हुए हैं। उन्हें षट् भाषा कवि चक्रवर्ती को उपाधि थी । पाण्डवपुराण, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका आदि ४०-५० ग्रन्थ उनके बनाये हुए हैं परन्तु ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्र से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । शुभचन्द्र नाम के और भी विद्वान् भट्टारक सुने जाते हैं परन्तु मैं इनका निर्णय नहीं कर सकती कि इस अङ्ग पण्णत्ति के कर्ता कौन से हैं ?
इस ग्रन्थ के अन्त में शभचन्द्र आचार्य ने अपनी पट्टावली में अपनी गुरु परम्परा लिखी है । सकलकीर्ति भट्टारक से लेकर वह इस प्रकार है
सिरिसयलकित्तिपट्टे आसेसी भुवणकित्तिपरमगुरु । तप्पट्टकमलभाणू भडारओ बोहभूसणओ ॥५०॥
श्री सकलकीर्तिपट्टे आसीत् भुवनकीर्तिपरमगुरुः ।
तत्पट्टकमलभानुः भट्टारकः बोधभूषणः ॥५०॥ सिरिविजकित्तिदेओ जाणासत्थप्पयासओ धीरो। बुहसेवियपयजुयलो तप्पयवरकलभसलो य ॥५१॥
श्री विजयकीतिदेवो नानाशास्त्रप्रकाशको धीरः । बुधसेवितपदयुगलः तत्पदवरकलभसलो य ॥५१॥