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अंगपण्णत्ति ...
जिसमें श्रेष्ठ चन्द्र, सूर्य, उनका ग्रहण, ग्रह, नक्षत्र उनका चार क्षेत्र, शकुन उनका शुभाशुभ फल आदिक कथन है या इन सबका जो वर्णन करता है बह कल्याणवाद पर्व है। अर्थात् कल्याणवाद पूर्व में सूर्यादि नक्षत्रों के गमनागमन का वर्णन भी रहता है ।।१०६॥
विशेषार्थ सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह और तारे (प्रकीर्णक) ये पाँच प्रकार के ज्योतिषीदेव हैं। ज्योति स्वभाव होने से इनको ज्योतिषी देव कहते हैं। __ इनमें चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र । एक इन्द्र सम्बन्धी एक-एक प्रतीन्द्र है । अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृग, शोर्षा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्ता, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवतो, ये अट्ठाईस नक्षत्र । रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, काल, लोहित, कनक, नील, विकाल, केश, कवयव, कनक संस्थान, दुदुभक, रक्तनिभ, निलाभास, अशोक संस्थान, कंस, रूपनिभ, कंसक वर्ण, शंख परिणाम, तिल पुच्छ, शंखवर्ण, उदकवर्ण, पंचवर्ण, उत्पात, धूमकेतु, तिल, नभ, क्षार राशि, विजिष्णु, सदृश, सेधि, कलेवर, अभिन्न गन्थि, मानवक कालक, कालकेतु, निलय, अनय, विद्युज्जिहू, सिंह, अलक, निर्दुःख काल, महाकाल, रुद्र, महारुद्र , संतान, विपुल, संभव, सर्वार्थी, क्षेम, चन्द्र, निमन्त्र, ज्योतिषमान, दिशसंस्थित, विरत, वीतशोक, निश्चल, प्रलम्ब, मासुर, स्वयंप्रभ, विजय, वैजयन्त, सोमंकर, अपराजित, जयन्त, विमल, अभयंकर, विकस, काष्ठी विकट, कज्जली, अग्निज्वाला, अशोक, केतु, क्षोरस, अधश्रवण, जलकेतु, केतु, अन्तरद, एक संस्थान, अश्व, भावग्रह और महाग्रह ये अठासी ग्रह और छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडाकोडी तारे होते हैं। इस प्रकार परिवार से युक्त असंख्यात सूर्य और चन्द्रमा हैं। ___एक राजू लम्बे चौड़े सम्पूर्ण मध्यलोक की चित्रा पृथ्वो से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाकर ज्योतिष लोक प्रारम्भ होता है, जो उससे ऊपर एक सौ दश योजन तक आकाश में स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथ्वी से सात सौ नब्बे योजन ऊपर एक राजू लम्बा चौड़ा, एक सौ दश योजन मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवों के रहने वा संचार करने का स्थान है । इसके ऊपर और नीचे नहीं। इसमें भी मध्य में मेरु के चारों तरफ