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द्वितीय अधिकार संख्यान-आहार करने जाते समय अनेक प्रकार के नियम लेना) विवक्तशयनासन (ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए तथा स्वाध्याय की वृद्धि के लिए एकान्त में शयनासन करना) और कायक्लेश (उपवास आदि के द्वारा शारीरिक कष्ट सहन करना) ये छह बहिरंग तप हैं।
प्रायश्चित्त-दोषों का निराकरण करने के लिए दण्ड लेना। विनय-गुणोजन, सम्यग्दर्शन आदि गुणों का तथा सम्यग्दर्शन आदि गुणों के धारियों का आदर-सत्कार करना। वैयावृत्य-गुरुजनों की आपत्ति आदि को दूर करना । स्वाध्याय-जिनप्रणीत शास्त्रों का पठन-पाठन करना। व्युत्सर्ग-बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर आत्मा में लीन होना। ध्यान-एकाग्रचित होकर तत्त्वों का चिंतन-मनन करना।
ये छह अन्तरंग तप हैं। इन बारह प्रकार के तपोऽनुष्ठान, उसके फल आदि का कथन भी कल्याणवाद पूर्व में है। ___पंच कल्याणों से पूजित तथा धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर कहलाते हैं, जिनकी बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा सेवा करते हैं। जो नवनिधि, चौदह रत्न तथा षट् खण्ड के अधिपति होते हैं। जिनके एक-एक निधि और रत्न की हजार-हजार देव सेवा करते हैं। छयानवे हजार रानियाँ होती हैं आदि अनेक विभूतियों के स्वामी चक्रवर्ती के वैभव, गति, मोक्ष, नरक वा स्वर्ग में गमन आदि का कथन भी कल्याणवाद पूर्व में है।
जिनकी १६ हजार मुकूटबद्ध राजा सेवा करते हैं। जो तीन खण्ड और सात रत्न का अधिपति है । १६ हजार रानियों का स्वामी होता है। वह अर्द्धचक्री (नारायण-प्रतिनारायण) नारायण के भ्राता बलभद्र जिनके आठ हजार रानियाँ होती हैं । नारायण, प्रतिनारायण मर कर नरक में हो जाते हैं । चक्रवर्ती नरक में, स्वर्ग में और मोक्ष में जाते हैं। बलभद्र स्वर्ग और मोक्ष में जाते हैं इत्यादि कथन कल्याणवाद पूर्व में है।
वरचन्दसूरगहणगहणक्खत्तादिचारसउणाइं । *तेसिं च फलाई पुणो* वण्णेदि सुहासुहं जत्थ॥१०६॥ वरचन्द्रसूर्यग्रहणग्रहनक्षत्रादिचारशकुनादि ।
तेषां च फलादि पुनः वर्णयति शुभाशुभं यत्र ॥ पयाई-२६०००००००।
इदि कल्लाणवादपुव्वं-इति कल्याणवादपूर्वं ।