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अंगपण्णत्ति शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है।
व्रत और शीलों से समृद्ध मुनि के तप करते हुए किसी कारण से विघ्न के उत्पन्न होने पर उसका संधारण करवा साधुसमाधि है। ___ गुणी पुरुष के दुःख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दुःख दूर करना वैयावृत्य है।
अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में भावशुद्धियुक्त जो अनुराग करना भक्ति है।
अर्हन्त (केवलज्ञान रूपी दिव्यनेत्र के धारी) में भक्ति करना अर्हन्तभक्ति है।
परहित प्रवण और स्वसमय एवं परसमय के विस्तार के निश्चय करने वाले आचार्य में भक्ति करना आचार्य भक्ति है।
श्रुत देवता के प्रसाद से प्राप्त होने वाले मोक्ष महल में आरूढ़ होने के लिए सोपान रूप बहुश्रुत में भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है।
प्रवचन में भावशुद्धिपूर्वक अनुराग करना प्रवचनभक्ति है ।
सर्व सावद्य भोगों का त्याग करना तथा चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है। चतुर्विंशति तीर्थंकरों का कीर्तन करना चतुविशति स्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्तपूर्वक करना वन्दना है । कृत दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है। भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है। परमित काल तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
इन षडावश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा किये अर्थात् (अव्यवधान) स्वाभाविक क्रम से उत्सुकतापूर्वक करना आवश्यकअपरिहाणि भावना कहलाती है।
ज्ञान, तप, जिनपूजा विधि आदि के द्वारा धर्म का प्रकाशन करना मार्ग प्रभावना है।
बछड़े में गाय के समान धार्मिक जनों में स्नेह प्रवचन वत्सलत्व है।
इन षोडशकारण भावनाओं के चिंतन से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है। ___ अनशन (उपवास करना), अवमौदर्य (भूख से कम खाना), रसपरित्याग (छहों रसों का या एक-दो रस का त्याग करना), वृत्तिपरि