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द्वितीय अधिकार
१४३ प्रभ अनेक देशों में विहार करते हैं, उस समय चरण कमल के नीचे देव कमलों को रचना करते हैं । अर्थात् जहाँ प्रभु चरण धरते हैं वहाँ इंद्र सप्त परमस्थान के प्रतीक सात-सात कमलों की पंक्तियाँ (दो सौ पच्चीस कमलों को) रचना करते हैं। इस प्रकार केवलज्ञानोत्पत्ति के समय इंद्र समवशरण की रचना करता है। अनेक प्रकार की दिव्य रचनाओं के द्वारा केवलज्ञान की पूजा करते हैं वह केवलज्ञान कल्याण महोत्सव है।
मोक्ष कल्याण-अनेक प्रकार के देशों में विहार कर धर्मोपदेश को वर्षा करके अन्त में चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त कर अघातियाँ कर्मों का नाश कर मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं उस समय प्रभु के निर्वाण कल्याण की पूजा की इच्छा से चतुनिकाय देव आकर सर्व प्रथम आनन्द नामक नाटक करते हैं। तदनन्तर प्रभु के शरीर को रत्नजड़ित पालकी पर विराजमान कर पूजा करते हैं और पंचकल्याण से पवित्र जिनेन्द्र के शरीर का अग्निकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न अग्नि, चन्दन, अगर, कपूर, केशर आदि सुगन्धित द्रव्य, क्षीर, (दूध), घृत आदि से दाह संस्कार करते हैं । तदनन्तर प्रभु की पूजा, भक्ति, स्तुति, नमस्कार करके देव अपनेअपने स्थान चले जाते हैं।
इस प्रकार इन्द्र प्रभु के पंच कल्याणों का उत्सव मनाते हैं उनका विस्तार पूर्वक कथन कल्याणवाद पूर्व में किया जाता है।
तीर्थंकर पद की कारणभूत षोडशकारण भावनाओं का कथन भी कल्याणवाद पूर्व में रहता है वे षोडशकारण भावनाएँ निम्नलिखित हैं
भगवान् अरिहंत परमेष्ठी द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ स्वरूप मोक्षमार्ग पर रुचि रखना दर्शनविशुद्धि है।
सम्यग्ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उनके साधन गुरु आदि के प्रति अपने योग्य आचरण द्वारा आदर सत्कार करना विनय है, और इससे युक्त होना विनयसम्पन्नता है।
अहिंसादिक व्रत पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना और व्रत पालने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शोलवतेष्वनतिचार है।
जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्व विषयक सम्यग्ज्ञान में निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।
संसार के दुःखों से निरन्तर डरते रहना संवेग है।
आहारदान, अभयदान, औषधदान और ज्ञानदान को शक्ति के अनु---सार विधिपूर्वक देना यथाशक्ति त्याग है।