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अंगपण्णत्त
विनय शुद्ध, अनुवादनशुद्ध, अनुपालन शुद्ध और भाव शुद्ध इन चार प्रकार की शुद्धिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए ॥
१०० ॥
विशेषार्थ
गुरु के समीप जाकर दोनों हस्तपुट संयुक्त करके मस्तक से लगाकर पिच्छिका से वक्षस्थल को भूषित कर, सिद्धभक्ति, योगभक्ति और गुरुभक्ति पढ़कर कायोत्सर्गपूर्वक कृतिकर्म करके उपवास ग्रहण करना विनय शुद्ध है ।
गुरु ने प्रत्याख्यान के अक्षरों के अक्षरों का पाठ जैसा किया हो स्वर, व्यंजन आदि से वैसा ही शुद्ध उच्चारण करना अनुभाषणशुद्ध प्रत्याख्यान है ।
अचानक किसी रोग का आक्रमण होने पर, उपसर्ग आने पर, अत्यन्त परिश्रम से थक जाने पर, दुर्भिक्ष आदि के होने पर, विकट वन आदि भयानक स्थान पर पहुँच जाने पर भी अपने स्वीकृत प्रत्याख्यान से च्युत नहीं होना, प्रत्याख्यान में त्रुटि नहीं होने देना, अनुपालन शुद्ध प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान को राग-द्वेष परिणामों से दूषित नहीं होने देना भावविशुद्ध प्रत्याख्यान है ।
इस प्रकार प्रत्याख्यान के भेदों का चौरासी लाख पदों के द्वारा कथन करने वाला प्रत्याख्यान पूर्व है ।
॥ इति प्रत्याख्यान पूर्व समाप्त ॥ विद्यानुवाद पूर्व का कथन
विज्जाणुवादपुव्वं पयाणि इगिकोडि होंति दसलक्खा । अंगुटुपसेणादी लहुविज्जा सत्तसयमेत्थ ॥ १०१ ॥
विद्यानुवादपूर्व पदानि एक कोटि : भवन्ति दशलक्षाणि । अंगुष्ट प्रसेनादी: लघुविद्याः सप्तशतान्यत्र ॥ पंचसया महविज्जा रोहिणिपमुहा पकासये चावि । तेसि सरूवर्सात साहणपूयं च मंसादि ॥ १०२ ॥
पंचशतानि महाविद्या रोहिणीप्रमुखाः प्रकाशयति चापि । तासां स्वरूपशक्ति साधनपूजां च मंत्रादिक ॥ सिद्धाणं फललाहे भोमंगयणंगसद्दछिण्णाणि । सुमिणंलक्खर्णावजणअट्टणि मित्ताणि जं कहइ ॥ १०३ ॥