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द्वितीय अधिकार
१३१ होता है। इसके विषय में यह नियम है कि उदयावली प्रकृतियों का फल स्वमुख से मिलता है और अनुदयावली प्रकृतियों का फल पर मुख से मिलता है। जैसे-साताका उदय रहने पर उसका अनुभाग साता रूप हो मिलता है। किन्तु तब अनुदयावली में प्राप्त असाता स्तिम्बुक संक्रमण के द्वारा साता रूप से परिणमन करती जाती है इसलिए उसका उदय परमुख से होता है । इनका विशेष वर्णन गोम्मट्टसार आदि से जानना चाहिए।
प्रदेश बन्ध-कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाहो स्थित अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु आत्मप्रदेशों में सम्बन्ध होकर स्थित रहते हैं उसको प्रदेशबन्ध कहते हैं। अथवा योग के द्वारा जो पुद्गल वर्गणायें आई हैं उनका ज्ञानवरणादि आठ कर्म रूप विभाजित होकर आत्मप्रदेशों पर स्थित रहना प्रदेशबन्ध है । इस प्रकार आठ कर्मों का बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि का बीस वस्तुगत चार सौ प्राभूतों के एक करोड़ अस्सी लाख पदों के द्वारा वर्णन करता है, वह कर्मप्रवाद पूर्व है। - ॥ इति कर्मप्रवाद पूर्व समाप्त ।।
प्रत्याख्यान पूर्व का कथन पच्चक्खाणं णवमं चउसीदिलक्खपयप्पमाणं तु । तत्थ वि पुरिसविसेसा परिमिदकालं च इदरं च ॥९५॥
प्रत्याख्यानं नवमं चतुरशीतिलक्षपदप्रमाणं तु।
तत्रापि पुरुषविशेषान् परिमितकालं च इतरच्च ॥ णाम टुवणा दव्वं खेत्तं कालं पडुच्च भावं च । पच्चक्खाणं किज्जइ सावज्जाणं च बहुलाणं ॥९६॥
नाम स्थापनां द्रव्यं क्षेत्रं कालं प्रतीत्य भावं च ।
प्रत्याख्यानं क्रियते सावद्यानां च बहुलानां ॥ उववासविहिं तस्य वि भावणभेयं च पंचसमिदिं च । गुत्तितियं तह वण्णदि उववासफलं विसुद्धस्स ॥ ९७॥
उपवासविधि तस्यापि भावनाभेदं च पंचसमिति च। गुप्तित्रयं तथा वर्णयति उपवासफलं विशुद्धस्य ॥