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अंगपण्णत्त
उत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र, सातावेदनीय ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं ।
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इनका अनुभाग रस, गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृत के समान है जैसे तिचा से अधिक शुभ रस मनुष्यायु में है और उससे अधिक देवायु में है । शेष एक सौ पाप प्रकृतियाँ हैं उसमें घातिया कर्म का अनुभाग लता आदि रूप कहा है और अघातिया कर्म की नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्च गति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय समचतुरस्रसंस्थान को छोड़कर पाँच संस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहननको छोड़कर पाँच संहनन, अप्रशस्त, आठ स्पर्श, पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, , अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, नरकाय, असातावेदनीय और नीचगोत्र ये पाप प्रकृतियाँ हैं । इनका अनुभाग रस, नीम्ब, कांजीर, विष और हलाहल विष के समान चार प्रकार का है ऐसा जानना चाहिए ।
अनुभाग बन्ध काल में जैसा बँधा है, एकान्ततः वैसा ही नहीं बना रहता है । अपने अवस्थान काल के भीतर वह बदल भी जाता है और नहीं भी बदलता है | बदलने से इसकी तोन अवस्थायें होती हैं - संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण । संक्रमण अवान्तर प्रकृतियों में होता है, मूल प्रकृतियों में नहीं होता । उसमें आयु कर्म की अवान्तर प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता और दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय रूप से तथा चारित्रमोहनीय का दर्शन मोहनीय रूप से संक्रमण नहीं होता ।
संक्रमण के चार भेद हैं- प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेश संक्रमण । जहाँ प्रति संक्रमण और प्रदेश संक्रमण की मुख्यता होती है वहाँ वह संक्रमण शब्द द्वारा संबोधित किया जाता है और जहाँ स्थिति संक्रमण तथा अनुभाग संक्रमण होता है वहाँ वह उत्कर्षण और अपकर्षण शब्द द्वारा सम्बोधित किया जाता है । बन्ध काल में जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त हुआ था, उसका घट जाना अपकर्षण है और स्थिति अनुभाग की वृद्धि होना उत्कर्षण है । इस प्रकार विविध अवस्था में गुजरते हुए उदय काल में जो अनुभाग रहता है उसका ही अनुभव फल प्राप्त होता है । अनुदय अवस्था को प्राप्त प्रकृतियों का परिपाक ( अनुभाग ) उदय अवस्था को प्राप्त सजातीय प्रकृति रूप से