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द्वितीय अधिकार
१२९ फलदान शक्ति में भी अधिक-अधिक कठोरपना है। इनमें दारू (लकड़ी) के अनन्तवें भाग तक शक्तिरूप स्पर्द्धक देशघाति हैं और दारू का शेष बहु भाग से लेकर शैल ( पत्थर ) भाग पर्यन्त स्पर्द्धक सर्वघाति हैं। इन सर्वघाति' अनुभाग के उदय में आत्मा के गुण प्रकट नहीं होते।
मिथ्यात्व प्रकृति लता भाग से दारू भाग के अनन्तवें भाग तक देशघाति स्पर्द्धक सम्यक्त्व प्रकृति के हैं तथा दारू के अनन्त बहुभाग के अनन्तिम में भाग प्रमाण सर्वघातियाँ स्पर्द्धक सम्यक्त्व मिथ्यात्व (मिश्र) प्रकृति के हैं। और शेष दारू का अनन्त बहुभाग तथा अस्थि भाग, शैल भाग रूप स्पर्द्धक मिथ्यात्व प्रकृति के हैं ।। ९४ ॥
विशेषार्थ मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, पाँच अन्तराय, चार संज्वलन और पुरुष वेद ये १७ प्रकृतियाँ शैल आदि चारों तरह के भाव रूप परिणमन करती हैं। और शेष सब प्रकृतियाँ के शैल आदि तोन प्रकार से परिणमन होते हैं केवल लतारूप परिणमन नहीं होता । घातिकर्म की सर्व प्रकृतियाँ अप्रशस्त होती हैं ।
अघातिया कर्म की प्रकृतियाँ भी घातिया के समान अनुभाग सहित होती हैं।
प्रशस्त ( पुण्य ) और अप्रशस्त ( पाप ) के भेद से अघातिया कर्म प्रकृतियाँ दो प्रकार की हैं।
तियंचायु, मनुष्यायु, देवायु, मनुष्यगति, देवगति, पाँच संधान, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्माण ये पाँच शरीर, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्त पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, १. सर्व प्रकार से आत्मा के गुणों को आच्छादन करने वाली जो कर्मों की
शक्तियां हैं उनको सर्वघाति स्पर्द्धक कहते हैं। और विविक्षित एक देश से आत्मगुणों को घात करने वाली शक्तियाँ हैं, वे देशघाति स्पर्द्धक कहलाते
२. एक समय में उदय में आने वाले कर्म पुंज हैं उसको स्पर्द्धक कहते हैं या _-कर्म वर्गणाओं का जो पिण्ड है उन्हें स्पर्द्धक कहते हैं ।