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अंगपण्णत्ति · श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति ये छह पर्या-प्तियाँ हैं।
जिस कर्म के उदय से जीव आहारादि छहों पर्याप्तियों में से किसी भी पर्याप्ति को पूर्ण नहीं कर सकता, पर्याप्तियों को पूर्ण करने में असमर्थ होता है, वह अपर्याप्ति नामकर्म है। __जिस कर्म के उदय से जीव दुष्कर उपवास आदि तप करने पर भो अंग-उपांग की स्थिरता रहती है, कृश नहीं होते हैं, वह स्थिर नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से एक आदि थोड़े से उपवास करने पर या साधारण शीत, उष्ण आदि से हो शरीर में अस्थिरता आ जाती है या शरीर के अंगोपांग कृश हो जाते हैं, वह अस्थिर नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से इष्ट और इष्ट प्रभा से युक्त शरीर की प्राप्ति होती है, वह आदेय नामकर्म है।
जिसके उदय से निष्प्रभ शरीर प्राप्त होता है, वह अनादेय नामकर्म है।
पुण्य गुणों का ख्यापन जिस कर्म के उदय से होता है, वह यशस्कीर्ति नामकर्म है। ___ यशस्कोति से विपरीत पाप दोषों की ख्यापन करने वाली अर्थात् अपयश को विस्तारित करने वाली अपयशस्कीति है।
आर्हन्त्यपद की कारणभूत तीर्थंकर कर्म प्रकृति है। जिसके उदय से अचिन्त्य विशेष विभूतियुक्त आर्हन्त्य पद प्राप्त होता है, उसको तीर्थंकर • प्रकृति कहते हैं । इस प्रकार नाम कर्म की उत्तर प्रकृति हैं ।
गोत्रकर्म-उच्चगोत्र कर्म, नीच-गोत्र कर्म के दो भेद हैं।
जिस कर्म के उदय से लोकपूजित कुल में जन्म होता है वह उच्चगोत्र है।
निन्दनीय कुल में जन्म होना नीचगोत्र है।
दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यान्तराय के भेद से अन्तराय कर्म पाँच प्रकार का है।
जिसके उदय से देने की इच्छा होने पर भी दे नहीं सकता, वह दानान्तराय है।
लाभ की इच्छा होने पर भी लाभ नहीं हो पाता है, वह लाभान्त
राय हैं।