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द्वितीय अधिकार
१२७ जिसके उदय से भोगने की इच्छा होने पर भी भोग कर नहीं सकता, वह भोगान्तराय कर्म है।
उपभोग की इच्छा होने पर भी जिसके उदय से वस्तु का उपभोग कर नहीं सकता, वह उपभोगान्तराय है ।
कार्य करने का उत्साह होते हुए भी जिसके उदय से निरुत्साहित हो जाता है, वह वीर्यान्तराय कर्म है ।
इनका जैसा नाम है वैसा ही उनका स्वभाव है अतः इनको प्रकृति. बन्ध कहते हैं। __ स्वभाव निर्माण के साथ ही उसके बद्ध रहने की काल अवधि भी निश्चित हो जाती है जिसे स्थितिबन्ध कहते हैं। ___ अर्थात् यथाकाल अनिजीर्ण अनेक भेद वाली इन प्रकृतियों का जितने काल तक आश्रय विनाश का अभाव होने से अवस्थान रहता है यानि जब तक ये कर्म प्रकृतियों का फल देकर नहीं झड़ती हैं, उनमें स्थितिबन्ध की विवक्षा है । अर्थात् तब तक के काल को स्थिति कहते हैं।
वह स्थिति बंध उत्कृष्ट और जघन्य के भेद से दो प्रकार का है।
आदि के तीन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, तथा अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है।
मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है। नामगोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ा-कोड़ी सागर है । आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर प्रमाण है । वेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति बारह महत्तं की है। नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मुहर्त प्रमाण है। _ शेष बचे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनोय, आयु और अन्तराय की जघन्य स्थिति बंध अन्तमुहूर्त मात्र है।
आगे अनुभाग बंध का कथन करते हैंअणुभागो पयडोणं सुहासुहाणं च चउविहो होदि । गुडखंडसक्करामिदसरिसो यो रसो सुहाणं पि ॥१२॥
अनुभागः प्रकृतीनां शुभाशुभानां च चतुर्विधो भवति ।
गुडखंडशर्करामृतसदृशश्च रसः शुभानामपि ॥ जिंबकंजीरविसरहालाहलसरिसचउविहो यो । अणुभायी असंहाण' पैदेसंबंधी' विं बहुभयों ॥१३॥