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अंगपण्णत्ति जिस नामकर्म के उदय से विग्रहगति में पूर्व शरीर का आकार बना रहता है, नष्ट नहीं होता है, वह आनुपूर्वी नामकर्म है। ये चार प्रकार हैं।
जिस समय अपनिगति की आय को पूर्ण करके पर्व शरीर को छोड़कर नरकगति के अभिमुख होता है उस समय विग्रहगति में उदय तो नरकगत्यानुपूर्वी का होता है। परन्तु उस समय आत्मा का आकार पूर्व शरीर के अनुसार बना रहता है, वह नरकगत्यानुपूर्वी है। __ मनुष्यगति में जाने वाले के विग्रहगति में पूर्व शरीर के अनुसार जो आकार बना रहता है, वह मनुष्यगत्यानुपूर्वी है ।
तिर्यंचगति में जाने वाले के विग्रहगति में आत्मा का पूर्व शरीर के अनुसार जो आकार रहता है, वह तिर्यगत्यानुपूर्वी है।
देवगति में जाने वाले के विग्रहगति में आत्मा का पूर्व शरीर के अनुसार जो आकार रहता है, वह देवगत्यानुपूर्वी है।
जिसके उदय से लोहपिण्ड के समान गुरु होकर न तो पृथ्वी में नीचे ही गिरता है और न रुई की तरह लघु होकर ऊपर ही उड़ जाता है, वह अगुरुलघु नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से स्वयंकृत बन्धन पर्वत से गिरना, विष सेवन करना, अग्नि में जलना आदि के द्वारा मरण होता है तथा अवयव से अपना घात होता है, वह उपघात नामकर्म है ।
जिसके निमित्त से परकृत शस्त्रादि के द्वारा घात होता है, मारणतारण आदि होते हैं, वह परघात नामकर्म है ।
जिसके उदय से आत्मा तपती है, जो सूर्य आदि में ताप का निवर्तक है। यह आतप नामकर्म उदय है। इसका उदय सूर्य के विमानस्थ जीव के ही होता है और वह पृथ्वीकायिक है।
जिस कर्म के उदय से उद्योत होता है, वह उद्योत नामकर्म है। इसका उदय चन्द्र के विमानस्थ पृथ्वीकाय, एकेन्द्रिय वा जुगनु आदि तियंचों में होता है। ____जो उच्छ्वास प्राणापान का कारण होता है, वा जिस कर्म के उदय से श्वासोच्छ्वास होता है, वह उच्छ्वास नामकर्म है ।
आकाश में गमन का कारण विहायोगति नामकर्म है। इसके प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार हैं।