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अंगपण्णत्त
वैक्रियिक शरीर में जिसके निमित्त से अङ्गोपाङ्ग की रचना होती है,वह वैयिक अङ्गोपाङ्ग है ।
आहारक शरोर में जिसके निमित्त से अङ्गोपाङ्ग की रचना होती है, वह आहारक अङ्गोपाङ्ग है ।
जिसके निमित्त से अङ्ग और उपाङ्ग की निष्पत्ति ( यथास्थान और यथाप्रमाण रचना ) होती है वह निर्माण नामकर्म है । वह निर्माण नाम कर्म दो प्रकार का है । स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण ।
जाति नामकर्म के उदय को अपेक्षा चक्षु आदि के स्थान की रचना करता है यह पहला स्वस्थान निर्माण नामकर्म है ।
जाति नामकर्म के उदय की अपेक्षा चक्षु आदि इन्द्रियों को प्रमाण से रचना करता है, वह दूसरा प्रमाण निर्माण नामकर्म है ।
शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गलों का परस्पर प्रदेश संश्लेष जिसके द्वारा होता है, वह बन्ध नामकर्म है । यही अस्थि आदि का परस्पर बन्धन करता है । इसके अभाव में शरीर प्रदेश लकड़ियों के ढेर के समान परस्पर पृथक्-पृथक् रहेंगे।
अविवर ( निश्छिद्र ) भाव से पुद्गलों का परस्पर एकत्व हो जाना, और जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के प्रदेशों का परस्पर निच्छिद्र रूप से संश्लिष्ट संगठन हो जाता है वह संघात नामकर्म है ।
जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर की आकृति ( आकार ) की निष्पत्ति होती है वह संस्थान नामकर्म है । वह संस्थान छह प्रकार का है।
कुशल शिल्पी के द्वारा रचित समचक्र की अवयवों का सन्निवेश ( रचना ) होना,
ऊपर, नीचे और मध्य में तरह समान रूप से शरीर के आकार बनना, समचतुरस्र संस्थान है ।
न्यग्रोध ( बड़ ) वृक्ष के समान नाभि के ऊपर शरीर में स्थूलत्व और नीचे के भाग में लघु प्रदेशों की रचना होना न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है।
शरीर के ऊपर भाग लघु और नीचे भारी, सर्प की बाँबी के समान आकृति वाला स्वाति संस्थान है ।
पीठ पर बहुत पुद्गल पिण्ड प्रचय विशेष लक्षण निर्वर्तक कुब्जकसंस्थान है।