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द्वितीय अधिकार जिसके निमित्त से आत्मा के नरक भाव होते हैं, वह नरक गति है।
जिस कर्म के उदय से तिर्यंच आदि के भाव को आत्मा प्राप्त होता है वह तिर्यंच गति है।
जिस कर्म के उदय से आत्मा मनुष्य भाव को प्राप्त होता है वह मनुष्य गति है।
नरकादि गतियों में अव्यभिचारी ( अविरोधी ) सादृश्य से एकीकृत स्वरूप जो है वह जाति नाम है ।
जाति नामकर्म पाँच प्रकार की है-एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म हैं। ___ एकेन्द्रिय नाम कर्म के उदय से एकेन्द्रिय जाति होती है। द्वीन्द्रिय नामकर्म के उदय से द्वीन्द्रिय जाति होती है। त्रीन्द्रिय नामकर्म के उदय से त्रीन्द्रिय जाति होती है। चतुरिन्द्रिय नामकर्म के उदय से चतुरिन्द्रिय जाति होती है । पंचेन्द्रिय नामकर्म के उदय से पंचेन्द्रिय जाति होती है।
जिस कर्म के उदय से आत्मा के शरीर को रचना होतो है, वह शरीर नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है। औदारिक शरोर नामकर्म, वैक्रियिकशरीर नामकर्म, आहारकशरीर नामकर्म, तैजसशरीर नामकर्म और कार्माणशरीर नामकर्म । स्थूल प्रयोजन वाला या स्थूल जो शरीर है वह औदारिक है।
अणिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य के कारण अनेक प्रकार की छोटेबड़े आकार रूप विक्रिया करना जिसका प्रयोजन है वैक्रियिक है।
सूक्ष्मत्व के निर्णय और असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्तसंयत मुनि के द्वारा रचा जाता है, वह आहारक कहा जाता है ।
तेज निमित्त या तेज से होने वाला तैजस कहलाता है । ये दोप्ति का कारण है।
कर्मों के कारण या कर्मों के समूह कार्माणशरीर है । जिस कर्म के निमित्त कारण से सिर, ओंठ, जाँघ, बाहु, उदर, हाथ और पैर तथा ललाट, नासिका, आँख, अँगुली आदि उपाङ्गों की रचना होती है, विवेक होता है उसे अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं। वह अङ्गोपाङ्ग नामकर्म तीन प्रकार का है।
औदारिक शरीर में जिसके निमित्त से अङ्गोपाङ्ग की रचना होता . - है, वह औदारिक अङ्गोपाङ्ग है।