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अंगपण्णत्ति जुगुप्सा-जिस मनोवृत्ति के उदय से पदार्थों के प्रति घृणा होवे तथा अपने दोषों का प्रचार करने या प्रगट करने की वृत्ति उत्पन्न हो उसे जुगुप्सा कहते हैं।
वेद-"वेद" का अर्थ है अनुभव या संवेदन करना तथा दूसरा अर्थ है लिंग या चिह्न। चिह्न लिंग दो प्रकार का है। भाव और द्रव्य । भाव वेद मोहनीय कर्म के उदय से होता है और द्रव्य वेद नाम कर्म के उदय से होता है अर्थात् वेद का बाह्य आकार बनता है नाम कर्म के उदय से । भाव स्त्रीवेद की उदीरणा से स्त्री को पूरुष के साथ रमण करने और उसे राग भाव से अवलोकन, स्पर्श, सम्भाषण आदि करने की अभिलाषा होती है।
भाव पुरुष वेद की उदीरणा से स्त्री के साथ रमण करने की अभिलाषा होती है। ___भाव नपुसक वेद की उदीरणा से स्त्री-पुरुष दोनों के साथ रमण करने के भाव उत्पन्न होते हैं। ___आयुकर्म-यह कर्म मनुष्यादि चारों गतियों को रोक करके रखता है । इसके चार भेद निम्न प्रकार हैं
मनुष्यायु, तिथंचायु, नरकायु, देवायु । जिसके उदय से दुःख-सुख का मिश्र रूप से अनुभव करता है वह मनुष्यायु है।
जिसके उदय होने पर क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि अनेक दुःखों के स्थानभूत तिर्यञ्च पर्याय को धारण करके जीवित रहता है उसे तिर्यञ्चायु जानना चाहिये। - ___ नरकों में जिसके निमित्त से शोत, उष्ण, वेदना का दीर्घ काल तक अनुभव करता है वह नरकायु है ।
शारीरिक, मानसिक, सुख स्वरूप होता है। देवांगना के वियोग से, महाविभूति देखने से, देव पर्याय की समाप्ति के सूचक माला मुरझाने से, शरीर की कान्ति ही होनता से जो मानसिक दुःख का अनुभव करता है, वह देवायु है। __जिस कर्म के उदय के कारण आत्मा भवान्तर (पर्यायान्तर) को ग्रहण करने के लिए गमन करता है उसे गति कहते हैं ।
वह चार प्रकार की हैनरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देव गति ।