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द्वितीय अधिकार
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जो चक्षु को छोड़कर अन्य इन्द्रियों से होने वाले सामान्य अवलोकन कोन होने दे वह अचक्षुदर्शनावरण है ।
जो अवधिज्ञान से पहले होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह अवधिदर्शनावरण है ।
जो केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्य दर्शन को रोके वह केवल - दर्शनावरण है।
मद, खेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है ।
निद्रा के उत्तरोत्तर अर्थात् पुनः पुनः प्रवृत्ति होना निद्रा-निद्रा है । जो शोक, श्रम और मद आदि के कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणी के भी नेत्र गात्र की विक्रिया सूचक है, ऐसी जो क्रिया आत्मा को चलायमान करती है वह प्रचला है ।
प्रचला की पुनः पुनः प्रवृत्ति होना प्रचलाप्रचला है ।
जिसके निमित्त से स्वप्न में वीर्य विशेष का आविर्भाव होता है वह स्त्यानगृद्धि निद्रा है।
निद्रा दर्शनावरण कर्म के उदय से तम अवस्था और निद्रा-निद्रा कर्म के उदय से महातम अवस्था होती है ।
वेदनीय कर्म की उत्तर प्रकृति दो प्रकार की है - साता एवं असाता । जिसके उदय से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च गति में शारीरिक और मानसिक सुखों का अनुभव हो उसको साता वेदनीय कहते हैं ।
जिसके उदय से नरकादि गतियों में शारीरिक, मानसिक आदि नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव हो उसको असातावेदनीय कहते हैं ।
मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्र - मोहनीय |
सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव नहीं होने देना अथवा उसमें विकृति उत्पन्न करना दर्शनमोहनीय कर्म का कार्य है उस दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं - मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति ।
जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख तत्त्वार्थ श्रद्धान करने में निरुत्सुक और हिताहित का विचार करने में असमर्थ होता है उसको मिथ्यात्व कहते हैं ।
जो कर्म सम्यग्दर्शन का घात तो नहीं करता परन्तु उसमें चल-मल