________________
११६
अंगपण्णत्ति
अनुभव नहीं हो सकता तथा जो कर्म जीव को मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारकी के शरीर में नियत अवधि तक कैद रखता है, वह आयु कर्म है।
चित्रकार विभिन्न रंग सँजो-संजोकर अपनी तलिका की सहायता से नाना प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार जो कर्म जगत के प्राणियों के नाना आकार-प्रकार वाले शरीर की रचना करता है, वह नामकर्म कहलाता है।
जैसे कुम्हार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के प्रभाव से जीव प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है, वह गोत्रकर्म है।
जो दानादिक में विघ्न डालता है । अभीष्ट की प्राप्ति में अडंगा लगा देता है, वह अन्तराय कर्म है।
मूल कर्म के भेद-प्रभेदों को उत्तरप्रकृति कहते हैं। यद्यपि वह उत्तरप्रकृति असंख्यात लोक प्रमाण है तथापि संक्षेप से उनका ज्ञान कराने के लिए एक सौ अड़तालीस भेद कहे हैं। उनके नाम और स्वभाव इस प्रकार हैं
ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद हैं-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ।
इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले तीन सौ छत्तीस प्रकार के मतिज्ञान पर आवरण करने वाले कर्म को मतिज्ञानावरण कहते हैं।
मतिज्ञानपूर्वक होने वाले पर्याय, पर्याय समास आदि बीस प्रकार के श्रुतज्ञान को आच्छादित करने वाला कर्म श्रुतज्ञानावरण कहलाता है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से रूपी पदार्थ जानने वाले ज्ञान को आच्छादित करने वाला कर्म अवधिज्ञानावरण कहलाता है ।
दूसरे मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानने वाले मनःपर्यय को ढकने वाला मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म है।
सकल द्रव्य, गुण और पर्यायों को जानने वाले केवलज्ञान पर आवरण करने वाला केवलज्ञानावरण कर्म कहलाता है।
दर्शनावरण कर्म के उत्तर भेद नौ हैं-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि ।
जो चक्षु द्वारा होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह चक्षुदर्शनावरण है।