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द्वितीय अधिकार
११५ प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध के भेद से बन्ध चार प्रकार का है। जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से स्थितिबन्ध दो प्रकार का है ।। ९१ ।।
विशेषार्थ गाय घास खाती है, और अपनी औदर्य यंत्र प्रणाली द्वारा उसे दूध के रूप में परिणत कर देती है। उस दूध में चार बातें होती हैं- १. दूध की प्रकृति ( मधुरता) २. काल मर्यादा : दूध में विकृति न होने की एक अवधि । ३. मधुरता की तरतमता । जैसे भैंस के दूध की अपेक्षा कम और बकरी के दूध को अपेक्षा अधिक मधुरता होना आदि । ४. दूध का परिमाण सेर दो सेर आदि । ... इसी प्रकार कर्म में एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न हो जाना 'प्रकृति बन्ध है।
मूलप्रकृति बन्ध और उत्तरप्रकृति बन्ध के भेद से प्रकृति बन्ध दो प्रकार का है । यद्यपि कर्म के स्वभाव असंख्य हैं फिर भी उन्हें मूल में आठ 'प्रकार और उत्तर में एक सौ अड़तालीस प्रकार का कहा गया है।
ज्ञानावरण आदि के भेद से मूल प्रकृति बन्ध आठ प्रकार का है। वह निम्न प्रकार है
प्रकृति, शील, स्वभाव ये एकार्थवाची हैं। ज्ञानावरण आदि कर्मों का जो स्वभाव है वह प्रकृति बन्ध है।
ज्ञानावरण बादलों का बवंडर जैसे सूर्य को आच्छादित कर देता है, उसो प्रकार जो कर्म पुद्गल हमारे ज्ञान तन्तुओं को सुप्त और चेतना को मूच्छित बना देते हैं, वे ज्ञानावरण स्वभाव वाले कर्म कहलाते हैं। ___ राजा के दरबार में जाते हुए पुरुष को जैसे द्वारपाल रोक देता है
और राजा के दर्शन में बाधक होता है, उसी प्रकार जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण का बाधक हो, वह दर्शनावरण कहलाता है।
तलवार की धार पर लगे शहद के समान सांसारिक सुख की और दुःख को वेदना का जो कारण है, वह वेदनीय कर्म है। __मोह एक उन्मादजनक विलक्षण मदिरा है जो प्राणी मात्र को विवेक विकल बना देती है, वह मोहनीय है। --- लोहे की बेड़ी के समान है, जिसके खुले बिना स्वाधीनता के सुख का