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अंगपण्णत्ति . . गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म विकल्प हैं। यह मूल प्रकृति कहलाती है ।। ८९ ॥
अडदालसयं उत्तरपयडीदो असंखलोयभेयं च । बन्धुदयुदोरणावि च सत्तं तेसिं परूवेदि ॥ ९० ॥ अष्टचत्वारिंशच्छतं उत्तरप्रकृतितः असंख्यलौकभेदं च । बंधोदयोदीरणा अपि च सत्वं तेषां प्ररूपयति ॥ आठ कर्मों की उत्तरप्रकृति एक सौ अड़तालोस है। तथा जीवों के परिणामों की भिन्नता या कर्म फलदान शक्ति की अपेक्षा कर्म असंख्यात लोक प्रमाण है । इन मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का यह कर्मप्रवाद नामक अष्टम पूर्व वर्णन करता है ।। ९० ।।
विशेषार्थ ___ योग और कषाय के द्वारा आए हुए पुद्गल वर्गणाओं का आत्मा के साथ उपश्लेष ( एक क्षेत्रावगाही ) हो जाना ही बन्ध है। अथवा कर्मों का आत्मा के साथ बद्ध होना और उनमें स्वभाव, मर्यादा, प्रभाव और परिणाम उत्पन्न होना बंध है।
कर्मों का फलदान उदय कहलाता है। अगर कर्म अपना फल देकर निर्जीव हो तो वह फलोदय और फल दिये बिना ही नष्ट हो जाय तो वह प्रदेशोदय कहलाता है।
बन्ध के समय में नियत हई काल मर्यादा के पूर्व ही कर्मों को उदय में ले आना उदीरणा है । अर्थात् स्थिति पूर्ण किये बिना कर्म उदय में आकर खिर जाना उदीरणा है।
कर्म बँधते ही अपना असर नहीं प्रकट करने लगते । जैसे मादक वस्तु का सेवन करते ही नशा नहीं आ जाता, धीरे-धीरे आता है, उसी प्रकार कर्मबन्ध के पश्चात् बीच का नियत समय, जिसे आबाधाकाल कहते हैं, समाप्त होने पर ही कर्म का फल होता है। बन्ध होने के और फलोदय पर ही कर्म का फल होता है। बन्ध होने और फलोदय होने के बीच कर्म आत्मा में विद्यमान रहते हैं उसको सत्ता कहते हैं।
पयडिट्ठिदि अणुभागो पदेसबंधो हु चउविहो बन्धो। तैसि च ठिदि णेया जहण्णइदरप्पभेयेण ॥११॥
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धो हि चतुर्विधो बन्धः । तेषां च स्थितिः जया जंघन्यतरप्रभेदेन ॥