________________
द्वितीय अधिकार
११३ व्यवहारनय से माया वंचना आत्मा के है अतः मायी है, निश्चयनय से अमायी है।
व्यवहारनय से मन, वचन, काय युक्त होने से आत्मा योगी है, निश्चयनय से अयोगी है।
व्यवहारनय से सूक्ष्मनिगोद लब्धपर्याप्त सर्व जघन्य शरीर प्रमाण वाला होने से आत्मा संकुट है। संकुचित प्रदेशवाला है। समुद्घात के समय सारे लोकाकाश में व्याप्त होता है। अतः आत्मा असंकुट है। और निश्चयनय की अपेक्षा संकोच विस्तार का अभाव होने से अनुभव रूप है वा किंचित् नून चरम शरीर प्रमाण है। _ निश्चय एवं व्यवहारनय से क्षेत्र-लोकालोक स्वरूप को जानता है अतः आत्मा क्षेत्रज्ञ है।
व्यवहारनय से अष्टकर्म के अभ्यन्तरवति स्वभाव होने से वा निश्चयनय से चैतन्य के अभ्यन्तरवर्ति रहने का स्वभाव होने से अन्तरात्मा है ।
इस प्रकार आत्मा के मूर्त-अमूर्त आदि अनेक भेदों का वर्णन करता है, वह आत्मप्रवाद नामक सातवाँ पूर्व है। इसके छब्बीस करोड़ पद हैं । और सोलह वस्तुगत तीन सौ बीस प्राभृत हैं। ॥ इस प्रकार आत्मप्रवाद नामक पूर्व समाप्त हुआ ।
कर्मप्रवाद का प्ररूपण कम्मपवादपरूवण कम्मपवादं सया णमंसामि । इगिकोडीअडसीदोलक्खपयं अट्टमं पुव्वं ॥८८॥
कर्मप्रवादप्ररूपणं कर्मप्रवादं सदा नमामि ।
एककोट्यष्टाशीतिलक्षपदं अष्टमं पूर्व ॥ आवरणस्स विभेयं वेयणीयं मोहणायु णामं च । गोत्तं च अंतरायं अटवियप्पं च कम्ममिणं ॥९॥
आवरणस्य विभेदं वेदनीयं मोहनीयमायुः नाम च ।
गोत्रं चान्तरायं अष्टविकल्पं च कर्मेदं ॥ कर्मप्रवाद ( कर्म समूह) का प्ररूपक, एक करोड़ अस्सी लाख पदों से युक्त जो कर्मप्रवाद नामक अष्टम पूर्व है उसको मैं सदा नमस्कार करता हूँ। ८८॥ ---
आवरण के भेद ( ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम,