________________
११२
अंगपण्णत्ति ___ व्यवहारनय से शुभ अशुभ कर्मों का और निश्चयनय से अपने चैतन्य भावों का करने वाला होने से कर्ता है। शुद्ध निश्चयनय से कुछ भी नहीं करता अतः अकर्ता है।
व्यवहारनय से सत्य एवं असत्य वचनों को बोलता है अतः वक्ता है और निश्चयनय से अवक्ता है ।
व्यवहारनय से इन्द्रिय आदि प्राणों को और निश्चयनय से ज्ञानदर्शन प्राणों को धारण करने वाला होने से आत्मा प्राणी है ।
व्यवहारनय से शुभाशुभ कर्मों का और निश्चयनय से अपने स्वरूप को अनुभव करने वाला होने से भोक्ता है।
व्यवहारनय के कर्म नोकर्म पुद्गलों को पूरना, गालना है इसलिए पुद्गल है और निश्चयनय से अपुद्गल है।
व्यवहारनय से त्रिकाल गोचर लोकालोक को और निश्चयनय से स्व को जानता है इसलिए आत्मा वेत्ता है वा वेद है। ___ व्यवहारनय से अपने द्वारा ग्रहण किये हुए शरीर को समुद्घात को अपेक्षा सर्व लोक को तथा निश्चयनय से सारे तीन लोक के पदार्थों को. ज्ञान से वेष्टित करता है, व्याप्त करता है अतः विष्णु है।
यद्यपि व्यवहारनय से कर्मवशात् भव-भव में नरकादि रूप होता है. तथापि निश्चयनय से स्वयं अपने में ज्ञान-दर्शन रूप होता है, परिणमन. करता है अतः आत्मा स्वयंभू है।
व्यवहारनय से औदारिक आदि शरीर के मध्य में रहने वाला होने से शरीरी और निश्चयनय से शरीर रहित होने से अशरीरी है।
व्यवहारनय से तियंञ्च, मानव, देव और नारकी आदि पर्यायों में परिभ्रमण करता है। मानव आदि पर्यायों में परिणत है। अतः मानव, तिर्यञ्च, नारकी और देव रूप है। जैसे मनु ( ज्ञान ) में लीन होने से मानव है और निश्चयनय से अमानव है।
व्यवहारनय से स्वजन, मित्र आदि परिग्रह में लीन रहता है सक्त है । निश्चयनय से आत्मा परिग्रह में आसक्त नहीं है अतः असक्त है।
व्यवहारनय से आत्मा चतुर्गतिरूप संसार में चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न होता है अतः जन्तु है । निश्चयनय से अजन्तु है ।
व्यवहारनय से मान ( अहंकार ) इसके हैं। इसलिए आत्मा मानी है, निश्चयनय से अमानी है।