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अंगपण्णत्ति अवगाढ आदि दोषों को उत्पन्न करता है वह सम्यक्त्व मिथ्यात्व प्रकृति कर्म है।
जिसके उदय से मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों की मिली हुई अवस्था होती है, न सम्यग्दर्शन रूप परिणाम रहते हैं और न मिथ्यात्व रूप रहते हैं अपितु मिश्ररूप परिणाम होते हैं उसको सम्यक्त्व-मिथ्यात्व प्रकृति कहते हैं।
आत्मा के सम्यक्चारित्र की घातक चारित्र मोहनीय है जिसके उदय से जीव चारित्र को धारण करने में समर्थ नहीं होता है ।
चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय। ____कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ।
क्रोध एक मानसिक किन्तु उत्तेजक संवेग है । उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है जिससे उसकी विचार क्षमता और तर्क शक्ति बहुत कुछ शिथिल हो जाती है । शारीरिक स्थिति परिवर्तित हो जाती है, आमाशय की मंथन क्रिया, रक्त चाप, हृदय की गति और मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु सब अव्यवस्थित हो जाते हैं । क्रोध में स्थित मानव अपने स्वरूप को भूल जाता है।
कूल, बल, ऐश्वर्य, वृद्धि, जाति, ज्ञान आदि का घमण्ड करना पूज्य पुरुषों के प्रति नम्र भाव का नहीं होना मान है।
दूसरों को ठगने के लिए कपट करना माया कषाय है। सांसारिक पदार्थों के प्रति तृष्णा, लालसा, गृद्धि का होना लोभ है।
ये क्रोधादि चारों कषाय आवेश की तरतमता और स्थापित्व के आधार पर चार-चार भागों में बाँटे गये हैं।
अनन्तानबंधी-अनन्त नाम संसार का है । परन्तु जो उसका कारण हो वह भी अनन्त कहा जाता है। जैसे कि प्राणों को धारण करने में सहायक रूप अन्न को भी प्राण कहते हैं। यहाँ पर मिथ्यात्व परिणाम को अनन्त कहा गया है। क्योंकि वह अनन्त संसार का कारण है । जो इस अनन्त मिथ्यात्व के 'अनु' अर्थात् साथ-साथ बँधे हुये हैं इन कषायों को अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं । इन कषाय के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार भेद हैं।