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अंगपण्णत्ति सत्यप्रवाद पूर्व बारह वस्तुगत दो सौ चालीस प्राभृतों के एक करोड़ छह पदों के द्वारा वचन गुप्ति आदि भाषाओं का निरूपण करता है। ॥ इस प्रकार सत्यप्रवाद पूर्व का कथन समाप्त हुआ ॥
आत्मप्रवाद का कथन अप्पपवादं भणियं अप्पसरूवप्परूवयं पुवं । छन्वीसकोडिपयगयमेवं जाणंति सुपयत्था ॥८५॥
आत्मप्रवादं भणितं आत्मस्वरूपप्ररूपकं पूर्व ।
षड्विंशतिकोटिपदगतमेवं जानन्ति सुपदस्थाः॥ जीवो कत्तां य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। वेदी विण्हूं सयंभू सरोरी तह माणओ ॥८६॥ जीवः कर्ता च वक्ता च प्राणी भोक्ता च पुद्गलः ।
वेदः विष्णुः स्वयंभू शरीरी तथा मानवः॥ सत्तो जंतू य माणी य माई जोगी य संकुडो । असंकुडो य खेत्तण्ह अंतरप्पा तहेव य ॥७॥
सत्ता जन्तुश्च मानी च मायी योगी च संकुचितः ।
असंकुचितः क्षेत्रज्ञः अन्तरात्मा तथैव च ॥ आत्मा के स्वरूप का प्ररूपक आत्मप्रवाद कहलाता है । इसके छन्वीस करोड़ पद हैं, ऐसा पदस्थ लोग जानते हैं अर्थात् छब्बीस करोड़ पदों के द्वारा आत्मा जीव है, कर्ता है, वक्ता है, भोक्ता है, पुद्गल है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सक्त है, जन्तु है, मानी है, मायी है, योगी है, संकुचित है, असंकुचित है, क्षेत्रज्ञ है, और अन्तरात्मा है। इत्यादि रूप से आत्मा के स्वरूप का वर्णन करता है उसको आत्मप्रवाद कहते हैं ।। ८५-८६-८७ ।।
ववहारेण जीवदि दसपाणेहि, णिच्छयणएण य केवलणाणदसणसम्मत्तरूवपाणेहि, जीविहिदि जीविहपुत्वो जीवदित्ति जीवो। ववहारेण सुहासुहं कम्मं णिच्छयणयेण चिप्पज्जयं च करेदित्ति कत्ता। नो कमवि करेदि इदि अकत्ता। सच्चमसच्चं च वत्तित्ति वत्ता। णिच्छयदो अवत्ता। णयदुगुत्तपाणा अस्स अस्थि इदि पाणी। कम्मफलं सस्सरूवं च भुजदि इदि भोत्ता । कम्मपोग्गलं पूरेदि गालेदि य पोग्गलो। णिच्छयदो अपो